मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

बुरी औरत हूँ मैं-- वंदना गुप्ता

वंदना गुप्ता की पहचान मूलतः एक कवियित्री के रूप में है किन्तु गद्य की अन्य विधाओं मसलन कहानी , उपन्यास, आलोचना, व्यंग्य आदि में भी उनका खासा दखल है।
"बुरी औरत हूँ मैं" उनका पहला कहानी संग्रह है जो 2017 में ए.पी.एन. पब्लिकेशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ। हालाँकि व्यक्तिगत रूप से यह शीर्षक मुझे ठीक नहीं लगा, पर क्या किया जाय। आजकल सनसनीे का दौर है। सनसनी आवश्यक है, चाहे ये शीर्षक द्वारा उत्पन्न हो , चाहे किसी आवरण द्वारा। वैसे इस किताब का  आवरण बहुत बढ़िया है, जिसे मशहूर चित्रकार कुँवर रवींद्र ने बनाया है।
शीर्षकों पर जब हम बात करते हैं तो हमें इससे जुड़े दूसरे पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए। आकर्षक शीर्षक वाली किसी किताब में यदि कहानी का मूल तत्व गायब हो और अन्य सभी चमत्कारिक तत्व हों भी तो पाठक के किस काम के।

वंदना जी के इस कहानी संग्रह में कुल बीस कहानियाँ हैं। कथ्य के लिहाज से एक दो कमजोर कहानियों को छोड़कर अधिकांश रचनाएँ अलग अलग विषयों और पात्रों को बखूबी प्रस्तुत करती हैं। कुछ प्रेम कहानियों की मूल थीम में भी थोड़ा सा दोहराव जैसा लगा। बावजूद इसके अधिकांश किस्सों में व्याप्त किस्सागोई की विविधता ये दर्शाती है कि रचनाकार अपने आसपास हो रही घटनाओं और चरित्रों को कितनी सजगता और सूक्ष्मता से ग्रहण करने में सक्षम है। किसी भी कहानी संग्रह को पढ़ते समय पाठक उन्हीं कहानियों को चुन लेते हैं जो उन्हें कहीं से विशेष लगें या प्रभावित करें। मैं भी उन कहानियों पर ही बात करना उचित समझता हूँ जो बेहद उल्लेखनीय लगीं।

संग्रह की पहली कहानी "ब्याह" एक ऐसी नारी की कथा है जिसका विवाह एक नपुंसक व्यक्ति से हो जाता है। नायिका दुर्भाग्य के इस अध्याय को अपनी नियति मानकर उस घर में शान्ति और सद्भाव से रहने का प्रयास करती है। घर के सदस्यों को एक लड़की के भविष्य खराब करने पर कोई पश्चाताप नहीं है। यहाँ तक कि उसकी सास अपने बेटे की कमी को सार्वजनिक होने से बचाने के लिए अपने पति यानी नायिका के ससुर को रात उसके कमरे में भेजने से गुरेज नहीं करती।
झूठ और छल के सहारे की गयी बहुत सी निरर्थक और विवादित शादियों की स्मृति इस कहानी के साथ ताजा हो आयी।

"उम्मीद" एक अलग सी कथावस्तु पर आधारित प्रेम-कथा है जहाँ कहानी का नायक एक विवाहित महिला से प्यार करने लगता है। पूरी तरह मानसिक धरातल पर स्थित इस प्यार में न तो कोई शारीरिक आकर्षण है न कोई चाहत। नायिका भी उसके नियमित संपर्क में है और वो भी नायक को पसन्द करती है किंतु अपनी अपनी सरहदों और प्रतिबद्धताओं से दोनों बखूबी वाकिफ़ हैं। न कोई इक़रार न इज़हार। अचानक कुछ यूँ होता है कि इस अव्यक्त प्रेम की पीड़ा से त्रस्त नायक धीरे धीरे बीमार पड़ जाता है। लेखकीय नियंत्रण में जरा सी छूट इसे एक साधारण कहानी बना सकती थी, किन्तु एक बेहद नाज़ुक विषय को बड़ी कुशलता से निभाया है वंदना जी ने।

"एक ज़िन्दगी और तीन चेहरे" एक असंतुष्ट प्रवृति के व्यक्ति की कथा है जो विवाहित होने के बावजूद अपनी प्रकृति के कारण संपर्क में आने वाली महिला मित्रों से सदैव अंतरंग होने का प्रयास करता था। कहानी की आख़िरी पात्र उसे इस मानसिकता से किस तरह मुक्त करती है, यह पढ़ना रोचक है।

"पत्ते झड़ने का मौसम" एक ऐसे ख़ुशमिज़ाज़, सहृदय और सुलझे हुए लेखक की आत्मकथा है जो अपनी कैंसर पीड़ित पत्नी की मृत्यु के बाद खुद को लेखन और यात्राओं में इस कदर व्यस्त कर लेते हैं कि देखने वाले उनकी ज़िंदादिली और जज्बे से रश्क़ करते हैं और कौतुक भी कि क्या इस इंसान को कभी अकेलापन नहीं व्यापता होगा?
एक दिन जब वो नहीं रहते और कथावाचक मित्र के हाथ उनकी डायरी लगती है तब उसे मालूम पड़ता है कि वो अपनी पत्नी और उसे कितना याद करते रहे।

"बुरी औरत हूँ मैं" यह शीर्षक कहानी एक ऐसी महत्वाकांक्षी औरत की ज़िन्दगी को बयान करती है जो अपने शौक पूरा करने के लिए कॉलेज के समय से ही कॉल गर्ल बन जाती है। उसके सौंदर्य पर मोहित कहानी का नायक सब कुछ जानते हुए भी उसे एक बेहतर जीवन देने का वायदा करते हुए उससे विवाह कर लेता है। इस कहानी का भयावह अंत ऐसे लोगों के लिए एक सबक है जो भौतिक सुख सुविधाओं की अनंत भूलभुलैया में खोकर अपने जीवन से खिलवाड़ करते हैं। व्यक्तिगत जीवन में देखी सुनी कुछ इसी तरह की घटनाओं की स्मृति के कारण यह कहानी प्रासंगिक हो उठती है।

"कितने नादान थे हम" एक ऐसे पति पत्नी की कथा है जो एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं किंतु भौतिकता की दौड़ में एक दूसरे से बहुत दूर निकल जाते हैं। तलाक आदि कानूनी प्रक्रियाओं का लंबा रास्ता तय करने के बाद अचानक वे खुद को ज़िन्दगी के रेगिस्तान में अकेले खड़ा पाते हैं और फिर उन्हें एक दूसरे की मूल भावनाओं का समुचित एहसास होता है।

"वो बाइस दिन" इस संग्रह की सबसे बेहतरीन और संवेदनशील कहानी है। नायिका के पिता कोमा की अवस्था में हैं। आसन्न मृत्यु की आहट और पीछे अकेले रह जाने को बाध्य परिजनों की उस विवशता के दौर को बेहद सधे शब्दों और अप्रतिम संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है वंदना जी ने।

"स्लीप मोड" इस संग्रह की अंतिम और गुणवत्ता में "वो बाइस दिन" के समकक्ष एक शानदार कहानी है। विस्मरण जैसी खतरनाक बीमारी के शिकार होते जा रहे उम्रदराज परिजन कभी कभी हम सबकी अनजाने में की गई उपेक्षा का शिकार होते हैं। हम उनके बताने पर भी ध्यान नहीं देते और अपनी इन लापरवाहियों पर हमारा ध्यान तब जाता है जब संभावनाओं के सारे दरवाज़े बंद हो चुके रहते हैं।

इस संग्रह की कुछ आरंभिक कहानियों में वंदना जी की भाषा बहुत खटकती है। उनकी कविता का दुष्प्रभाव वाक्य विन्यासों पर बार बार नज़र आता है। शायद ये पुरानी कहानियाँ होंगी जब उनकी भाषा उतनी परिमार्जित नहीं रही होगी, किन्तु उत्तरार्द्ध की रचनाएँ पढ़ते हुए भाषा और शिल्प पर उनकी क्रमशः मजबूत होती गयी पकड़ स्पष्ट नज़र आती है। असरदार भाषा और संवेदना के स्वाभाविक प्रवाह के कारण आख़िर की कुछ कहानियाँ बेहद प्रभावशाली बन पड़ी हैं।

बुरी औरत हूँ मैं
वंदना गुप्ता
प्रकाशक-- ए.पी.एन. पब्लिकेशन
वर्ष-- 2017
मूल्य-- 270/-,
पृष्ठ-- 220

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

गूदड़ बस्ती- प्रज्ञा रोहिणी

" ज़िन्दगी अपने भीतर अनेक कहानियाँ लिए चलती है जिनके किरदार कभी ठूँठ में कोंपल रच देते हैं तो कभी अपनी गुमनामी में जीकर ऐसे निकल जाते हैं, मानो वो कभी थे ही नहीं।" ( गूदड़ बस्ती, पृष्ठ 1)

प्रज्ञा रोहिणी ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान कहानीकार के रूप में अपना एक अलग मुकाम खड़ा किया है। विमर्शों के अनावश्यक बोझ को परे रखकर उन्होंने अपनी रचनाओं में निरंतर सार्थक मुद्दों को उठाया है और बड़ी गंभीरता और सहजता से उनका निर्वाह किया है। नारीवाद के स्वर उनकी रचनाओं में भी हैं किन्तु कुछ समकालीन महिला कथाकारों की तरह उनमें किसी विषय के प्रति कोई अनावश्यक पूर्वाग्रह नहीं दिखता। उनकी अब तक पढ़ी गयी कुछ कहानियों के वैविध्य ने आश्वस्त किया है। कल्पनाजन्य चमत्कारिक या सनसनी फैलाने वाले कथानक उनके यहाँ अनुपस्थित हैं। "उलझी यादों के रेशम" जैसी संवेदनशील कहानी हो या फिर "मन्नत टेलर" और "स्याह घेरे" जैसे  सामयिक विषयों पर लिखी कहानियाँ , प्रज्ञा पूरी विश्वसनीयता से इन्हें हमारे सामने रखती हैं, जिनमें हमारे समय और समाज की विद्रूपताओं की धारदार उपस्थिति है।

उनका पहला उपन्यास "गूदड़ बस्ती" इसी वर्ष "साहित्य भंडार इलाहाबाद" से प्रकाशित हुआ है।इस उपन्यास का शीर्षक पाठकों को पहली नज़र में थोड़ा अजीब लग सकता है किन्तु एक बार पढ़ना शुरू करें तो ये सारी बाधाएँ गायब हो जाती हैं। उनके लेखन का प्रवाह इतना असरदार है कि इसे एक बैठक में पूरा पढ़ सकते हैं।

जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है यह उपन्यास एक ऐसी बस्ती के लोगों की जीवन गाथा है जो हाशिये पर गुजर करने को बाध्य हैं। यहाँ उनकी गरीबी और असमर्थता है तो समाज के चमकदार पक्ष द्वारा की जा रही अवहेलना और अपमान भी है। स्कूल और कॉलेज के स्तर पर भी स्थितियाँ कुछ बेहतर नहीं हैं। बावजूद इन विषमताओं के कुछ परिवारों के बच्चे अपने परिजनों के सहयोग और त्याग के चलते एक रौशन भविष्य की उम्मीद में अपने अँधेरों से लड़ रहे हैं। बाधाएँ और अपमानित होने की परंपरा हर मोड़ पर उनसे पहले मौजूद हैं, फिर भी आगे बढ़ने की जिद और जुनून कमजोर नहीं पड़ता। कहानी के मुख्य पात्रों की माँ का चरित्र इसी जिद और जुनून का एक प्रबल चेहरा है।

बीमार पिता की मृत्यु के बाद घर की स्थिति का बयान करती उनकी ये पंक्तियाँ पढ़ते हुए हम भी उस दुख के सहभागी बन जाते हैं....

"पापा के जाने के बाद हमने उनके होने का मतलब जाना। उनका होना यानी घर की इच्छाओं का पूरा होना। उनका होना यानी हँसी में एक साथी और दुख में एक सहारा होना। उनका होना यानी घर का घर होना।"

प्रसंगवश इस कहानी में 1984 के अमानवीय दंगों के समय का वर्णन भी आता है। प्रज्ञा चूँकि दिल्ली से हैं अतः बहुत सारे अनुभव उनके देखे सुने होंगे। उस घोर अराजक दौर की स्मृति के प्रामाणिक दृश्य स्तब्ध कर जाते हैं।

हमारे आसपास और विद्यालयों में फैलते ड्रग नामक मौत के धंधे और स्थानीय पुलिस की सहयोगी भूमिका का वर्णन भी बहुत प्रभावी है।

चूँकि पूरी कहानी मुख्य किरदार द्वारा सुनाई जाती है अतः इसे पढ़ते हुए प्रायः ऐसा आभास होता है जैसे कोई आत्मकथा पढ़ रहे हों। कहानी का फलक बड़ा है, और किरदार भी बहुत से , अतः घटनाएँ तेजी से घटती हैं। कथानक के इस प्रवाह से किताब में रोचकता तो बढ़ जाती है किंतु कहीं कहीं घटनाओं को विस्तार नहीं मिल पाता। फिर भी प्रज्ञा का ये पहला प्रयास मुझे सराहनीय लगा क्योंकि उन्होंने अपने लिए प्रेम कहानी या स्त्री विमर्श के किसी हल्के कथानक की आसान राह नहीं चुनी। आज के शॉर्टकट वाले दौर में किसी नवोदित रचनाकार द्वारा इस तरह का कथानक चुनना किसी दुस्साहस से कम नहीं। अपने पात्रों को भी बड़ी सतर्कता से गढ़ा है उन्होंने। इस गढ़न में हर पात्र के गुण दोष और उनकी स्वाभाविक विशेषताएँ निखर कर सामने आती हैं। अपने पात्रों पर उनकी इस पकड़ और संवेदना के संतुलन ने उपन्यास को कहीं पर हल्का नहीं होने दिया।
प्रज्ञा रोहिणी जी को इस उपन्यास के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ। उनके लेखन की गुणवत्ता और विकास की प्रक्रिया निरंतर कायम रहे, यही दुआ है ।

गूदड़ बस्ती
प्रज्ञा रोहिणी
2017
साहित्य भंडार
मूल्य- 50 रुपये मात्र

शनिवार, 7 अप्रैल 2018

फुगाटी का जूता -- मनीष वैद्य

"अँधेरा बाहर का हो या भीतर का, उजाले के लिए हथियार उठाना ही पड़ता है।"

मनीष वैद्य पिछले कुछ वर्षों के दौरान एक महत्वपूर्ण कहानीकार के रूप में उभरे हैं। 2013 में आये पहले कहानी संग्रह "टुकड़े टुकड़े धूप" के बाद इस अंतराल में उनकी जो कहानियाँ देश की प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं, उन्हीं का संकलित स्वरूप "फुगाटी का जूता" के रूप में हमारे सामने हैं। इन कहानियों से गुज़रते हुए हुए मैंने पाया कि मनीष जी ने इन बीते वर्षों में भाषा और शिल्प पर काफी मेहनत की है। उनकी समृद्ध भाषा और संवेदनशील सम-दृष्टि कई कहानियों को यादगार बना जाती है। उनके लेखन की एक और विशेषता उनकी रचनाओं का कथ्य है। विविध प्रकार के चरित्र और विषयवस्तु उनकी झोली में मौजूद हैं। घर और समाज से विस्थापित और व्यवस्था की संवेदनहीनता का शिकार हुए लोग उनकी रचनाओं में बार बार आते हैं।

घड़ीसाज--

"वह दुनिया के समय को बदलने, ठीक करने और अपनी तरह का समय बताने की एवज में अपना समय भुला देता है। समय बीतने पर क्या बचता है। हम दरवाजे पर चौकसी करते रहते हैं और वह कम्बख़्त खिड़कियों से गुज़र जाता है।
अब तो अपनी घड़ियाँ ही नहीं, लोग अपने समय तक को दुरुस्त नहीं करते। उपयोग के बाद फेंक देते हैं सब कुछ।"

संग्रह का आगाज़ एक घड़ीसाज की संवेदनशील कथा से होता है, जो आधुनिकीकरण के दौर में न सिर्फ़ अपनी दुकान बल्कि इस दुनिया से ही बेदखल कर दिया जाता है।

"आदमी जात" एक लम्बे कालखण्ड को प्रस्तुत करती है। विभाजन के समय सिंध नदी के किनारे स्थित एक छोटे से गाँव से जान बचाकर भागा हुआ किशोर शरणार्थी कैम्प्स में भटकते हुए एक दिन अपने परिवार को पा लेता है। किन्तु बचपन की दोस्त शीनू और उसके परिवार का दुखद अंत उसे जीवन भर का दुख दे जाता है। घर परिवार और ज़िन्दगी की व्यस्तता के बीच सत्तर साल गुजर जाने के बाद भी उसके ख़यालों की आवाजाही सरहद के इस पार से उस पार तक चलती रहती है।

"फुगाटी का जूता" पिछले वर्ष पहल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। बाजार के फैलते पाँवों और ब्रांड के पीछे भागती नई पीढ़ी की ये कहानी वास्तविकता की अंदरूनी तहों तक ले जाती है हमें।

"....कि हरदौल आते हैं---

(एक स्त्री के लिए विवाह के बाद कितना कुछ बदल जाता है। बोली, पानी, खान-पान, आचार-व्यवहार, बाना-पहनावा। फिर भी तमाम चीजें रह जाती हैं जो कभी नहीं बदलतीं। भौगोलिक सीमाओं से परे भी। जैसे उनकी नियति। जो यहाँ है, वही वहाँ भी है।)

जनश्रुतियों में जीवित हरदौल की ऐतिहासिक लोक-कथा का वर्तमान संदर्भों में किया गया सफल पुनर्लेखन है। इसका मार्मिक घटनाक्रम वर्तमान कहानी में मौजूद पात्रों के साथ पाठक को भी रोमांचित कर जाता है।

"उज्जड़" एक शालीन प्रहार है उन लोगों पर जो अपने वैभव के अहंकार में गरीबों को छोटा करके आँकते हैं, जबकि किसी आकस्मिक विपत्ति के समय यही लोग निःस्वार्थ भाव से काम आते हैं।

"काग़ज़ ही काग़ज़ में बोलता है"

( सावन के बाद हमेशा भादौ ही नहीं आया करता। कभी कभी सावन के बाद फिर से आषाढ़ आ जाया करता है। ऐसा ही है ज़िन्दगी का भूगोल। )

ये एक ऐसे निःसंतान शख़्स की व्यथा कथा है जो पत्नी की मृत्यु के बाद शहर में एकाकी जीवन बिताते हुए एक दिन गाँव वापस लौटने का निर्णय करता है। भतीजे और बहू का अनमना व्यवहार देखकर उसकी उलझन बढ़ती ही जाती है। कुछ दिनों बाद उसे मालूम पड़ता है कि उसकी जमीन को हड़पने के लिए उसके भतीजे ने उसे मृत घोषित कर रखा है। स्पष्टीकरण माँगने पर "जो उखाड़ना है, उखाड़ लो" की धमकी मिलती है।

"अब्दुल मज़ीद की मिट्टी"

( क्या हुआ? अब्दुल मज़ीद मिला? अब तो वक़्त ने भी उसे रफू कर दिया। बरखुरदार, हमें ये गुमान होने लगता है कि हम बहुत बड़े रफ़ूगर हैं, जबकि वक़्त से बड़ा कोई रफ़ूगर नहीं होता। सब कुछ बदल देता है वह.. सब कुछ..)

घड़ीसाज के मुख्य पात्र की तरह इस कहानी का नायक भी इस बेरहम वक़्त का शिकार है। अपनी रफूगरी के लिए मशहूर इस शख़्स को अपने हुनर और इस हुनर की कद्र करने वाले लोगों पर इतना यकीन है कि बेटे के समझाने के बावजूद किसी और काम के लिए तैयार नहीं होता। कहानी का उत्तरार्ध हमारे समय की अमानवीयता और भयावह बाजारीकरण का दुखद स्वरूप प्रस्तुत करता है।

"ख़ैरात" शासकीय चालों और दबंगों  के बीच पिसते साधारण जन की कहानी है। प्रशासनिक आदेश से एक गाँव के भूमिहीन गरीबों को जमीन आवंटित की जाती है। इनमें से अधिकांश जमीन नालों और ऊसर बंजर पहाड़ियों पर निकलती है। जिसके हिस्से में उपजाऊ जमीन आयी उन पर पहले से ही गाँव के पटेलों का कब्जा। इस बारे में बात करने पर उनकी ओर से धमकियाँ मिलती हैं। धीरे धीरे एक ऐसी पार्टी का अस्तित्व वहाँ उभरता है जो लोगों के आक्रोश को भुनाने में विशेषज्ञ है और एक दिन पूरा क्षेत्र आंतरिक युद्ध के मुहाने पर खड़ा हो 
जाता है।

"हरसिंगार सी लड़की" एक मासूम सी प्रेम कहानी है। विषयवस्तु और पात्रों के अनुरूप परिवर्तित भाषा का खिलंदड़ापन आनन्दित करता है।

"खोए हुए लोग"

( जो ज़िन्दगी भर सबकी चिट्ठियाँ सही पते पर, आज वह खुद अपना पता भूल गए। )

यह इस संग्रह की श्रेष्ठ कहानियों में एक है। स्मृति लोप का शिकार इस कहानी का बुजुर्ग पात्र अपने गाँव को अपना मानने से इनकार कर देता है। उनकी जिद है कि उन्हें उनके गाँव पहुँचाया जाय।
ये सोचकर कि शायद कुछ दिन यहाँ से दूर रहकर उनकी जिद कम हो जाय, घरवाले उन्हें लेकर तीर्थयात्रा पर चले जाते हैं। हालाँकि उनकी मनःस्थिति पर इस सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी गतिमान स्मृति यात्रा हमें प्रसंगवश गाँवों के निरंतर परिवर्तित होते हालात और लोगों की हिंसक मनोवृत्ति से जुड़ी कुछ घटनाओं से रूबरू कराती है। अतीत की इन्हीं दुखद यादों से उनकी वर्तमान मनोदशा के तार जुड़े हुए हैं।

"सुगनी" हमारे समाज के उस दौर और उन क्षेत्रों की दास्तान बयान करती है जहाँ अशिक्षा और अज्ञान का अंधकार इस कदर व्याप्त रहता है कि सही और ग़लत की सारी विभाजन रेखाएँ ख़त्म हो जाती हैं। एक गरीब, असमर्थ और विधवा स्त्री पहले ताकतवर लोगों द्वारा जमीन और घर से रहित की जाती है और बाद में डायन घोषित कर उस पर अत्याचार की इंतिहा कर दी जाती है। दुखद अंत वाली यह कहानी बरबस मिथिलेश्वर के प्रसिद्ध उपन्यास "युद्धस्थल" की याद ताजा कर जाती है।

बोधि प्रकाशन जयपुर से इसी वर्ष आयी इस किताब का आवरण कलात्मक और प्रकाशन उच्चस्तरीय है। इन दिनों पढ़ी गयी अन्य किताबों की तुलना में प्रूफ़ की गुणवत्ता भी प्रशंसनीय है।

फुगाटी का जूता
मनीष वैद्य
बोधि प्रकाशन
वर्ष २०१८
मूल्य- ₹ १२०

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

...कि हरदौल आते हैं- मनीष वैद्य

कहानी

 

... कि हरदौल आते हैं

 

मनीष वैद्य

हम विस्मय से सुनते हैं सांस थामकर। रात की खामोशी को तोड़ते हुए दूर कहीं से मामी की आवाज़ गिरती है। वह कांच की तरह गिरती है और किरच–किरच पूरे कमरे में बिखर जाती है। चौदस और पूनम की चमकती रातों में चम्पावती का सत अब भी रोशन होता है। जंगल का चप्पा–चप्पा चाँद की दूधिया आब में दमकने लगता है। अब भी हरदौल आते हैं सफ़ेद–सफ्फाक घोड़े पर सवार। बीहड़ों को रौंदते हुए,नदी–नालों को छलांगते,चट्टानों–पहाड़ों को फलांगते ... तब इस उसर धरती पर इत्तर की खुशबू फ़ैल जाती है यहाँ से वहाँ तक। खुशबू जैसे साथ–साथ चलती है हरदौल के घोड़े के साथ। ऐसी खुशबू जो कभी किसी ने कहीं नहीं महसूसी. जिसका कोई सानी नहीं। खुशबू के साथ लोग सुनते हैं घोड़े के टापों की आवाजें भी। टप्प...टप्प आधी रात ढलती है और सुनसान बियावान जंगल में सन्नाटे के बीच गूंजते हैं हरदौल के गीत। जैसे दुःख का कोई दरिया बह निकलता है उन गीतों से। इन्हें सुनते हुए औरतें अपनी छातियों में सहेजती है इन गीतों को। उनकी आँखों से बहती है गरम आंसूओं की धार। नमक–नमक हो जाती हैं वे समुद्र की तरह। यहाँ की हवाओं में साढ़े तीन सौ सालों से गूंजती रही हैं दुखों से भींगी ये नज्में। प्रेम की पाकीजगी की दास्ताँ बयान करते ये गीत।

मामी बुंदेलखंड से आती हैं। अपने ससुराल मालवा से बहुत दूर। नानी के घर जाने पर मामी से कहानियां सुनने का बड़ा आकर्षण हुआ करता था। नानी के घर जाने की बात से हम बहुत खुश हो जाते। मामी हर रात हम बच्चों को कहानी सुनाती है। हर बार नयी कहानी। उसके भीतर जैसे कहानियों का कोई खजाना-सा था कहीं। रात का अँधेरा घिरने लगता। ठंडी हवाएं तीर की तरह चुभने लगती। सारे बच्चे मामी के कमरे में इकट्ठे हो जाते। फिर शुरू होता कहानी और हुंकारों का दौर। कहनियाँ सुनते हुए नींद दस्तक देने लगती। फिर आधी नींद और आधे जागते हुए सुनी जाती कहानियां। छोटे बच्चे एक–एक कर नींद की आगोश में जाते रहते और कहानी अपने चरम की ओर। ऐसी ही एक रात सुनाई थी उसने हरदौल की कहानी। रुंधे हुए गले और भारी मन से। उस रात सपनों में हम दौड़ते रहे थे हरदौल के सफ़ेद–सफ्फाक घोड़े के पीछे–पीछे सैकड़ों मील। हमारे पैर कांटों और कंकरों से छिले जा रहे थे। पर कोई आकर्षण था उन टापों में कि हम रूक ही नहीं पा रहे थे।

मामी यहाँ अपने बुंदेलखंड को बहुत याद करती। वह अपने अंचल को याद करती थी या शायद अपने बचपन को ही। बचपन का बुंदेलखंड जैसे मामी के पल्लू से बंधकर मालवा आ गया था उसके साथ। वह अपने बुंदेलखंड और बचपन के लिए हिजती रहती हमेशा ही। पर न तो कभी लौटकर बचपन वापस उसके हाथ आया और न ही उस समय से लौट कर उसका बुंदेलखंड ही। गुजरा हुआ समय कभी नहीं लौटता। किसी के लिए नहीं। गुजरा हुआ समय या तो यादों में ही जीवित रह पाता है या इतिहास की किताबों में ही।

तब मामी अब जैसी नहीं लगती थी। तब उसका रूप चटख धूप की तरह उजला–उजला-सा था। उसकी देह से मोतिया आब फूटती थी तब। आँखों में आसमान से ऊँचे सपने थे और आंखें झील की तरह झिलमिलाती रहती थी। मामी की दादी कहती नगीना है नगीना मेरी रज्जो। कोई राजकुमार घुड़सवार एक दिन आएगा और रानी बनाकर ले जायेगा पर गरीबी जो न कराए थोडा है। समय बीतता गया पर न कोई राजा आया और न ही कोई राज कुमार। मामी की उम्र बढ़ने लगी तो दादी की उम्मीद भी टूटने लगी। आखिरकार एक दिन नानी के घर पंहुचा मामी का रिश्ता मामा के लिए. मामा छह फूटिया कद के, न चेहरे पर पानी न बोली में लहजा। न रंग के न भांत के, काम के न काज के दुश्मन अनाज के. ताश के ऐसे शौकीन कि घर–खेत में आग लगी हो तो भी पत्ते न छोड़े। आसपास सब उनके आलस को जानते थे। लोग कहते–क्या करें बेटी देकर। उन्हें देने से अच्छा है पत्थर बाँधकर कुँए में ही डाल दें।

नानी अलग गुस्से में। अब यही बच गया है ज़िन्दगी में देखने को। 8 बीघा जमीन के वारिस का ब्याह बुंदेलखंड में। वहाँ के लोगों में न मालवा जैसे बोलचाल की लोच और न ही रित–रिवाज। वहाँ तो लोग बात–बात पर बंदूक से बात करें। पत्थर और बीहड़ों के देस की बहू...इससे तो कुंवारा ही भला मेरा छोरा। पर किस्मत का बदा कौन टाल सकता है भला। एक दिन मामा ढोल-ढमाकों के साथ बारात लेकर वहाँ पंहुचे और मामी को लेकर लौट आए. मामी तब से यहीं की होकर रह गई. उसने सम्भाल लिया था सब कुछ। घर–बार, खेत–खलिहान,नाते–रिश्तेदार और मामा को भी। मामा के साथ खटती रहती खेतों में फिर दोपहर की धूप सिर पर आ जाती तो खेत की मेड पर आंबे की छाँव में दोनों रोटी खाते और घड़ी भर सुस्ता लेते।

पर नानी उस पर हमेशा चिढती–कुढती रहती। कलमुंही ने तीन–तीन छोरियां पैदा कर दी। मैं तो बुढ़ापे में पोते का मुंह देखने को तरस गई. यही बज्जात लिखी थी हमारी किस्मत में। पूरे कुल का चिराग बुझाने आ गई हमारे घर–द्वार। पुरखे कैसे तैरेंगे मेरे घर के. कैसे धूप–दीप लगेगी उन्हें। एक पोते का सुख न दे सकी। भगवान न जाने कौन से पाप की सजा दे रहा है कुलच्छिनी को। मामी कुछ नहीं बोलती। बस सुनती रहती और जुटी रहती काम में। पढ़ी–लिखी शहर में ब्याही बहू–बेटियों ने नानी को समझाया भी कि पोता नहीं होने में मामी का कोई दोष नहीं है। कि इसके लिए तो मामा ही जिम्मेदार हैं पर नानी किसी की बात नहीं मानती। सारे तर्क खारिज, उसके लिए तो बस उसका अपना सोचा–समझा ही मानने लायक था। बाकी कुछ नहीं।

शादी के बाद कितना कुछ बदल जाता है एक औरत के लिए. एक संस्कृति में पली–बढ़ी लडकी जब दूसरी संस्कृति में जाती है तो नयी संस्कृति उसके लिए किसी रहस्य से कम नहीं होती। बोली–बानी, खान–पान,आचार–व्यवहार, बाना–पहनावा। कितनी सारी बातें। फिर भी रह जाती है कई बातें जो कभी नहीं बदलती। भौगोलिक सीमाओं से परे भी। जैसे नहीं बदलती औरतों की नियति। जो यहाँ हैं, वह ही वहाँ है। कोई अंतर नहीं। वहाँ भी औरत दासी से ज़्यादा कुछ नहीं,यहाँ भी वह पैर की जूती ही समझी जाती है। वहाँ भी उसका चरित्र हमेशा से संदेह के घेरे में है तो यहाँ भी। सैकड़ों सालों के बाद अब भी वह वहीँ की वहीँ है। कटघरे में खड़ी आरोपित। कभी सीता खड़ी थी तो कभी अहिल्या। साढे तीन सौ साल पहले हरदौल की भौजी चम्पावती भी तो ...

एक दिन मामा चल बसे। फिर तो नानी ऐसी बिफरी कि जब तक जीती रही, मामी की छाया तक नहीं दाबी. रात–दिन अपनी ओलडी में मामी को भला–बुरा कहती रहती। उसे शरापती रहती। मामी फिर भी उसका पूरा ध्यान रखती। आखिर तक मन लगाकर सेवा की। कुछ रिश्तेदारों ने उसे जमीन से बेदखल करने की इतनी चालें चली कि कोई दूसरी होती तो बेटियों के साथ कब से कुँए–कुण्डी कर चुकी होती या किसी और के पल्लू से बंध गई होती। पर मामी किसी और मिट्टी की बनी थी। सैकड़ों लांछन और मुसीबतें झेलकर भी वह खड़ी रही अपनी छाती को चट्टान बनाकर।

मामी की पनीली आँखे घुमड़ आती है और वह अनायास गुनगुनाने लगती है-नजरियों के सामने हरदम लाला रैयो, जैसी प्रीत करी भौजी से, ऊंसई सबै निभैंयो। मामी की आवाज में कई बुन्देली औरतों की आवाज घुलने लगती है, जैसे सब गा रही हो एक साथ मामी की ही जुबान से। बरबस ढोल की आवाज गूंजती है। मामी जैसे कहीं खोने लगती है, शायद कहानी में। चेटका पर हरदौल की पत्थर से गढ़ी मूर्ति। आब-ताब से चमकता राजपूती रूआबी चेहरा, झबरीली कटारा मूंछे। गोरा रंग, सलोना रूप, कमर में लटकी तलवार, घी का दिया,ताज़े फूलों के हार, सिन्दूर,नारियल, पूजा की थाली। हम कुछ नहीं समझ पा रहे। कौन है ये हरदौल। ये औरतें क्या गा रही है और क्या है यह भौजी से प्रीत की बात।

बुंदेलखंड में यह कथा सदियों से गूंजती रही है। सैकड़ों गीत हैं यहाँ हरदौल के. अब भी लोग उन्हें बुलाते हैं हर शुभ काम में सबसे पहले। उन्हें भरोसा है कि न्यौता देने पर वे ज़रूर आते हैं। कि उनके आने से ब्याह–शादी में कोई विघ्न नहीं आता। घर का मुखिया गाँव के आदमी–औरतों के साथ ढोल–ढमाके से गीत गाते पंहुचता है न्यौता देने हरदौल की थानक तक। उनके चेटका पर औरतें गाती है–लाला हरदौल विनती मान लइयो हो,भूल–चूक चरन तरे दाब लईयो हो...

मामी जैसे लौटती है कहानी में–ओरछा के राजा वीरसिंह जूदेव के दो बेटे। दोनों बड़े ही प्रतापी और प्रजा के हित में सोचने वाले। बड़े बेटे का नाम जुझार सिंह और छोटे बेटे का नाम हरदौल। बुजुर्ग होने पर वीरसिंह बीमार रहने लगे और एक दिन वे चल बसे। बड़े होने के नाते जुझार सिंह को राजगद्दी पर बैठाया गया। हरदौल बहुत खुश। वे अपने भाई जुझार सिंह और भाभी चम्पावती की जी-जान से सेवा करते। राजकाज में उनकी सूझबुझ का कोई सानी नहीं था। उन्होंने अपने राज्य पर होने वाले युद्धों में कई बार अपनी वीरता से हारी हुई बाज़ी भी जीत ली। वे युद्धभूमि में तलवार ऐसे चलाते कि सामने वाले को संभलने तक का मौका नहीं देते थे। उनके युद्ध कौशल की कई–कई कथाएं कही–सुनी जाती है।

वें प्रजा के बीच भेष–बाना बदलकर अक्सर उनका दुःख–सुख जानने निकल जाया करते। इस तरह वे प्रजा के सबसे चहेते हो चले थे। एक बार बुंदेलखंड में अकाल पड़ा। लोगों की जान पर बन आई. मवेशी और पखेरू मरने लगे। अनाज बचा था न पानी। लोगों में हाहाकार मच गया। हरदौल ने रात–दिन एक कर दिया। हीरे-जवाहरात और सोना–चांदी बेच पड़ोस के राज्यों से बैलगाड़ियों में भरकर अनाज खरीदा। गाँव–गाँव सदाबरत लगवाये। कोई भूखा न रहा। पानी के लिए कुओं को गहरा कराया। नहरों से पानी भेजा यहाँ-वहां। नदियों का मुंह मोड़ लिया। राज्य में हर तरफ हरदौल की जय–जयकार। हरदौल न हुए, भगवान हो गए वे लोगों के लिए.

बच्चों ने हुंकारा भरते हुए पूछा-फिर क्या हुआ ...मामी।

मामी जैसे अपनी ही रो में कहे जा रही थी-उधर इसी वजह से कुछ बड़े दरबारी मंत्री और चाटुकार अंदर ही अंदर हरदौल के प्रति द्वेष से भर गए. हरदौल के रहते उनकी कारस्तानियाँ लगातार सामने आ रही थी। जुझारसिंह से उन्हें कोई ख़ास खतरा नहीं था पर हरदौल उनके लिए मुसीबत का सबब बने हुए थे। धीरे–धीरे उन्हें लगने लगा था कि हरदौल को रास्ते से हटाए बिना वे अपनी साजिशों में सफल नहीं हो पाएंगे। पर हरदौल को हटाना इतना आसान भी नहीं था। वह वीर पुरुष था। उसे हराना या उस पर हमला करना किसी के बस में नहीं था। वह बहुत धीर–गंभीर भी था। लिहाजा उसे छल से भी मात देना संभव नहीं था। उसके गुप्तचरों का संजाल चारों ओर था। ऐसे में थोड़ी-सी भनक भी साजिश करने वालों की मौत का कारण हो सकती थी। ऐसे में छल करने वालों ने एक सोची समझी चाल चली। एक ऐसी चाल जिसने हरदौल को शह दी। हरदौल और जुझार जब तक शह-मात की यह बिसात समझ पाते तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

हरदौल को अपने भाई–भाभी से बहुत प्रेम था। वे उनका उसी तरह सम्मान देकर आदर करते थे जैसे रामायण में लक्ष्मण अपने बड़े भाई राम और सीता का करते थे। माँ–पिता की तरह सेवा करते थे उनकी। कभी उनका कहा नहीं टालते। भाई–भाभी भी उन्हें बेटे की तरह चाहते थे। यह बात सब जानते थे। जुझारसिंह के आसपास के कुछ अवसरवादी दरबारी मंत्रियों और चाटुकारों ने उनसे हरदौल को लेकर चुगली करना शुरू कर दी। कहते हैं कुशल तैराक नदी में डूब सकता है। कुशल रसोइया रसोई बिगाड़ सकता है। कुशल तलवारबाज़ निशाने में चूक सकता है पर चुगलखोर कभी नहीं चूकता। उसका निशाना यहाँ भी नहीं चूका। भाई को बेटे की तरह मानने वाले राजा जुझारसिंह भी कान भरने पर उन्हीं की तरह सोचने लगे। धीरे–धीरे चुगली ने अपना असर दिखाया।

औरत को हमेशा ही संदेह की नजर से देखा जाता रहा है। हर युग में। हर समय में। राजा जुझार के मन में भी उसकी पत्नी चम्पावती के चरित्र को लेकर तरह–तरह की चुगलियाँ की जाने लगी। चम्पावती और हरदौल के माँ–बेटे की तरह पवित्र रिश्ते पर नाजायज सम्बन्धों का आरोप लगने लगा तो राजा जुझार कुपित हो गए. कुछ मंत्रियों ने उन्हें सलाह दी कि वे रानी चम्पावती को कहें कि वे खुद अपने हाथों से हरदौल को जहर मिला भोजन कराएं। मंत्रियों ने सोचा कि यदि रानी भोजन करा देगी तो हरदौल का नाम ही ख़त्म हो जायेगा और यदि नहीं खिलाया तो राजा के सामने हमारी यह बात साबित हो जाएगी कि दोनों के बीच ग़लत रिश्तें हैं। राजा जुझार मंत्रियों की चाल समझ नहीं पाए और रानी को विष मिला हुआ भोजन हरदौल को कराने का आदेश दे दिया। रानी बहुत रोई, गिडगिडाई पर राजा को कोई असर नहीं हुआ। रानी आज उसी तरह खड़ी थी जैसे बरसों पहले कभी लांछन लगी सीता खड़ी थी अपने ही राम के सामने अग्नि परीक्षा को तैयार। रानी ने रोज की तरह लाला हरदौल की पसंद के व्यंजन बनवाये। उनमें राजा की इच्छा अनुसार जहर मिलाया गया।

मामी की आवाज़ कुँए की तरह भीतर कहीं से आ रही थी। आवाज़ आँखों की नमी में घुलकर पनीली हो रही थी। कोई पंछी अचानक पीपल के पेड़ पर फडफडाया था। मामी शायद साढे तीन सौ साल पीछे लौट गई थी। वहाँ थी तो बस अँधेरी रात की ख़ामोशी तोडती मामी की दुःख से बोझिल आवाज़।

हरदौल जब रोज की तरह भोजन पर बैठे तो भाभी की आँखों में झर–झर आंसू। भाभी पछाड़ खाकर धरती पर गिर गई. हरदौल कुछ समझ नहीं पा रहे थे। वे समझे भाई–भाभी के बीच किसी बात पर अनबन हो गई है। वे थाली से उठे और भाभी से कहा–क्या बात हो गई भाभी। आप इतना संताप क्यों कर रही हो। भाभी से कुछ कहा नहीं जा रहा था। छातीं फट रही थी। पूरी देह जल रही थी। नसों में उबाल। ये कैसा धर्म संकट है उसके सामने। यह कैसी सांप–छछूंदर-सी गति है उसकी। इधर कुँआ तो उधर खाई. क्या करे वह। इधर बेटे की तरह का देवर और उधर पति। रोते–रोते कहने लगी–अजीब दुविधा में हूँ लाला, इस भोजन में विष मिलाया है मैंने। तुम इसे मत खाना। मेरे पति बावरे हो गए हैं। वे ऐसे नहीं हैं, ज़रूर किसी ने उनके कान भरे हैं। मैं माँ होकर भी तुम्हें विष देने चली थी। मुझे माफ़ कर देना लाला हरदौल।

हरदौल ने कहा–अरे भाभी,इसमें क्या बड़ी बात है। यदि बड़े भैया ऐसा ही चाहते हैं तो इसमें कौन बड़ी बात है। हम बुंदेला कुल के हैं। वीरों के कुल से। जहाँ बड़ों के सम्मान के लिए मरना बहुत सहज है। भाभी हम तुम्हारा सम्मान लौटाने के लिए हँसते–हँसते मरना पसंद करेंगे। भैया चाहते हैं तो हम यह भोजन ज़रूर करेंगे।

मामी का गला रुँधने लगता है। जैसे कोई डूच्चा-सा फंस रहा हो गले में। आँखे गीली हो रही है। कलेजा भारी–भारी हो रहा है। शब्द जैसे कहीं भीतर फंस रहे हैं। अँधेरे के बावजूद देख पा रहा हूँ मैं मामी की इस हालत को। उसका सिरहाना गीला है। उसकी चूड़ियों का संगीत थम गया है। वह कहती है हरदौल की कहानी है ही ऐसी. मैं ठंड के बाद भी कानों के पीछे पसीने की चिपचिपाहट महसूस करता हूँ।

भाभी मना करती रही पर हरदौल ने जैसे ही कौर मुंह में लिया, जहर ने अपना असर दिखाया। वे वहीं गिर पड़े। रानी चम्पावती की चीख निकली और अन्तःपुर में फ़ैल गई. राज महल बहुत बड़े होते हैं और उनमें अक्सर ऐसी आवाजें वहीँ घुट कर रह जाती है। लाला हरदौल ने मरकर भी अपनी भाभी के मान को बढ़ाया। वे मरकर भी अमर हो गए. उनके पहले और बाद में कई राजा हुए पर लोक में अब भी हरदौल ही पहचाने–पूजे जाते हैं। लोक नायक की तरह। लोक देवता की तरह जगह–जगह उनकी प्रतिमाएं हैं। चबूतरें हैं। कहते हैं हरदौल की बहन उनके चेटका पर ब्याह का न्यौता रखते हुए रोने लगी तब वे मरने के बाद भी अपनी बहन कुंजावती की बेटी के ब्याह में आये और मंडप की पंगत में बारातियों को भात परोसा।

यहाँ लोग कहते हैं कि हरदौल आज भी चांदनी रातों में घोड़े पर निकलते हैं। घोड़े की टापों की आवाज़े सुनी जाती है देर रात सुनसान जंगलों में। हरदौल के गीत यहाँ की हवाओं में हर चांदनी रात सरसराते हैं। कहते हैं हरदौल कभी नहीं मर सकते। वे बरसों–बरसों तक औरतों की सच्चाई की दुहाई देते रहेंगे उसी तरह। वे काल से परे है। शरीर मरता है, बाते कहाँ मरती है कभी। लोग मरते हैं, कहानियां कहाँ मरती है कभी। जब तक धरती पर लोग रहेंगे, कहानियां कही जाती रहेंगी हमेशा ही। गीत गूंजते रहेंगे। हमेशा ही। हरदौल की तरह।

अनायास मेरी नजर मामी के चेहरे पर पडती है। उसकी देह तप रही है। लाल आँखों से जैसे लावा टपकने को हो। मामी के चेहरे पर गजब का तेज है जैसे मामी बदल रही हो चम्पावती में। साढ़े तीन सौ साल बाद फिर से।

11–ए, मुखर्जी नगर, पायोनियर स्कूल चौराहा

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विरह विगलित कदंब: पुष्पा भारती

विरह विगलित कदंब पुष्पा भारती साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उ...