बुधवार, 28 मार्च 2018

हस्तीमल हस्ती

बरसों पहले जगजीत सिंह का एक नया ग़ज़ल एलबम कैसेट प्लेयर पर बज रहा था। अचानक एक ग़ज़ल की कुछ आरंभिक पंक्तियों नें बरबस ध्यान खींच लिया। वो शेर था...

जिस्म की बात नही थी, उनके दिल तक जाना था,
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है।

बहुत बड़ी बात बेहद खूबसूरती और सादगी से दो मिसरों में कह दी गयी थी। तुरन्त एलबम उठाया और शायर का नाम देखा-- "हस्तीमल हस्ती" और ये वही रचना थी जो इतनी मक़बूल हुई कि हस्तीमल हस्ती साहब की सिग्नेचर ग़ज़ल बन गयी, और जगजीत सिंह की गाई सदाबहार ग़ज़लों में इसका शुमार हुआ।

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है।
नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है...

बस उसी दिन से ये नाम जेहन में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। हालाँकि बड़ा भारी भरकम सा नाम था। कहीं से ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि ये जनाब वास्तविक जीवन मे कैसे होंगे। फिर कुछ दिनों बाद पंकज उधास के एक अल्बम में एक ग़ज़ल के कुछ अशआरों ने पुनः एलबम के विवरण पर जाने को मजबूर किया। फिर यही साहब हाज़िर थे और वो पंक्तियाँ थीं...

सूरज की मानिन्द सफर में रोज निकलना पड़ता है
बैठे बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना..

हस्ती साहब की ग़ज़लें धीरे धीरे  हमारे जीवन का हिस्सा बनती चली गईं। ये भी एक खुशकिस्मती ही थी कि हम महाराष्ट्र में आसपास के जिलों यानी मुम्बई और ठाणे के निवासी हैं जिसकी वजह से पिछले वर्ष एक व्यक्तिगत बैठक में उनसे रूबरू होने का सौभाग्य भी मिला। हस्ती साहब के सहज सरल व्यक्तित्व और हँसमुख चेहरे को देखकर उनके नाम को लेकर जो भी भरम थे सब दूर हो गए। उनके साथ बीता वो खूबसूरत दिन स्मृतियों का अमिट हिस्सा है। उन्हें सुनना और उनके सामने बैठना एक ऐसा अनुभव है जो किसी भी दिन को खास बना जाय।

पिछले दिनों रतन कुमार पाण्डेय सर और हूबनाथ पाण्डेय जी द्वारा संपादित पत्रिका "अनभै" का हस्ती साहब पर केंद्रित विशेषांक जब मिला तो उसे देखकर अच्छा लगा। देश के जाने माने शायरों , गीतकारों, लेखकों और ग़ज़लकारों द्वारा उन पर लिखे लेखों और संस्मरणों के सहारे उनके व्यक्तिगत जीवन, संघर्षों और सफलताओं के बारे में काफी कुछ जानने को मिलता है। हालाँकि इस तरह के आयोजन प्रायः एकरसता के शिकार भी हो जाते हैं, पर इस पत्रिका के संपादकद्वय की प्रशंसा करनी चाहिये कि उन्होंने भिन्न विधाओं के संयोजन से इस अंक को न केवल एकरसीय होने से बचाया बल्कि रोचक और संग्रहणीय बना दिया। कवियत्री रीता दास राम द्वारा लिया गया एक विस्तृत साक्षात्कार इस आयोजन को समृद्ध करता है।
आख़िर में उनकी कुछ चुनिंदा ग़ज़लें और दोहे भी शामिल हैं जो इस विशेष अंक को न सिर्फ़ वैविध्य प्रदान करते हैं बल्कि उनके रचनात्मक सफर की एक झलक भी दिखाते हैं।
हिन्दी और उर्दू के सीधे सरल लफ़्ज़ों में ग़ज़ल के सुनिश्चित बह्र को कायम रखते हुए इस तरह का सार्थक लेखन बहुत कम लोगों ने किया है। जीवन के हर पहलू के प्रति गहरी समझ, संवेदना और नज़र का निखार उनकी शायरी में जगह जगह मिलता है।

"ख़ुद चराग बन के जल वक़्त के अंधेरों से
भीख के उजालों से रौशनी नही होती "

जैसा एक छोटा सा शेर हमें रुककर सोचने और अपने आप को बदलने पर मजबूर कर सकता है।

उनकी ग़ज़लों में आपको अपने चारों तरफ़ बिखरी हुई विषमताओं और राजनीतिक/ सामाजिक विडंबनाओं के दर्शन तो होंगे ही, उन तमाम बातों का ज़िक़्र भी मिलेगा जिनसे ये दुनिया आज भी खूबसूरत है।

हस्ती साहब के कुछ दोहे और शेर आप सब के लिए प्रस्तुत हैं जिनमें जीवन के कई रूपों और रंगों से आपका परिचय होगा।

बूँदें दिखतीं पात पर, यूँ बारिश के बाद
रह जाती है जिस तरह, किसी सफ़र की याद।

अदालतों में बाज हैं, थानों में सय्याद
राहत पाए किस जगह, पंछी की फरियाद।

मेरे हिंदुस्तान का है फ़लसफ़ा अजीब
ज्यों ज्यों आयी योजना, त्यों त्यों बढ़े गरीब।

कभी प्यार, आँगन कभी, बाँटी हर इक चीज
अब तक जीने की हमें आयी नहीं तमीज़।

रहा सफ़लता का यहाँ , हस्ती यही उसूल
गहरे में पानी मिला, ऊपर मिट्टी धूल।

वही गणित हिज्जे वही, मुश्किल वही हिसाब
सुख पहले भी ख़्वाब था, सुख अब भी है ख़्वाब।

**** *****

सारी चमक हमारे पसीने की है जनाब
बिरसे में हमको कोई भी जेवर नही मिला

घर से हमारी आँख-मिचौली रही सदा
आँगन नही मिला तो कभी दर नही मिला।

हम लड़ रहे हैं रात से, लेकिन उजालों पर
होगा तुम्हारा नाम ये मालूम है मुझे

जब तक हरा भरा हूँ उसी रोज़ तक हैं बस
सारे दुआ सलाम ये मालूम है मुझे।

शायरी है सरमाया खुशनसीब लोगों का
बाँस की हरेक टहनी बाँसुरी नही होती

Hastimal Hasti

हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज़- गौतम राजऋषि

गौतम राजऋषि मौजूदा दौर के सबसे लोकप्रिय लेखकों की जमात में दर्ज हैं। उनके ग़ज़ल संग्रह "पाल ले इक रोग नादाँ " को पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला था। हालिया बरसों में किसी काव्य विधा की किताब पर शायद ही इतनी बात हुई हो।

भारतीय सेना में कर्नल के पद पर सुशोभित गौतम राजऋषि का पहला कहानी संग्रह "हरी मुस्कुराहटों का कोलाज" इस वर्ष की चर्चित किताबों में रहा है।
कर्नल साहब ने ग़ज़लों की ही तरह अपने गद्य के लिए भी एक खास ज़मीन विकसित की है। भाषा पर उनके सहज अधिकार और शिल्प की सरलता इस संग्रह की रचनाओं को पठनीय बनाती हैं। गौतम सेना से हैं तो बड़े स्वाभाविक रूप से इन कहानियों की पृष्ठभूमि में फौजियों के जीवन और उनके परिवार से जुड़े किस्से हैं।
चूँकि इन कहानियों को कल्पना की बजाय बिताए हुए जीवन की स्मृतियों ने गढ़ा है अतः इन्हें पढ़ते हुए प्रायः संस्मरण पढ़ने का आभास होता है।

कुछ बड़ी कहानियाँ जिनका विस्तार कथ्य के अनुरूप बड़े शानदार तरीके से किया गया है, उनमें व्याप्त किस्सागोई के तत्वों ने इन कहानियों को अधिक प्रभावी और यादगार बना दिया है। ऐसी ही कुछ कहानियों का ज़िक़्र....

"दूसरी शहादत" शहादत एक ऐसी लड़की की दास्तान है जिसका सैनिक मँगेतर एक सैन्य अभियान में शहीद हो जाता है। जीवन पर अचानक आई इस विपदा से जूझते हुए अचानक एक दिन मालूम पड़ता है कि वो गर्भवती है। उसके पिता अपने परिवार को अपयश से बचाने के लिए एबॉर्शन करा देते हैं। ये कहानी उस लड़की की मनःस्थिति और अवसाद को बड़े संवेदनशीलता से बयान करती है, जो अपने होने वाले पति को तो खो ही देती है, उसके आख़िरी निशानी अपने बच्चे को भी नहीं बचा पाती।

बर्थ नम्बर तीन-- इस कहानी में दो सैनिक मित्रों की एक रेल यात्रा के दौरान घटी घटना का वर्णन है। दोनों की बर्थ अलग अलग डिब्बों में होती है। कहानी का नायक जिस डिब्बे में नीचे की बर्थ पर है वहीं एक और परिवार विराजमान है। रात को उस परिवार का कोई सदस्य नायक से अनुरोध करता है कि वो ऊपर की सीट पर चला जाय। नायक बड़ी विनम्रता से यह अनुरोध अस्वीकार कर देता है, और फिर उस परिवार के लोग बड़ी देर तक आज की पीढ़ी के नाम ताने मारते हैं। सुबह जब उसका दूसरा मित्र मिलने आता है तब इन्हें मालूम पड़ता है कि वो एक सैनिक है और उसका पाँव कट चुका है। अपनी ग़लती का एहसास होने के बाद वो सॉरी कहते हैं तो नायक उन्हें डाँट देता है ये कहते हुए कि-- किस बात पर सॉरी? मैं सैनिक हूँ इसलिए या फिर अपंग हूँ इसलिए।" कहानी एक बड़ा संदेश हमें दे जाती है कि वस्तुस्थिति को बिना ठीक से समझे रियेक्ट करना नितांत अनुचित है।

"तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा" एक रोचक हास्य संस्मरण जैसा है। जिस छावनी की ये कहानी है वहाँ सप्ताह में एक दिन पूजा होती थी और बाद में आरती। इस कहानी के नायक को अचानक एक दिन संदेह होता है कि आरती की अंतिम पंक्तियों " तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा " के दौरान किसी के द्वारा कुछ और गाया जा रहा है। एक दो बार तो कोशिश करने के बाद भी वो चूक जाता है किंतु एक दिन सब उन पंक्तियों को सुनने में कामयाब हो जाते हैं----
पेड़ा तुझको अर्पण, प्याला दे मेरा
और फिर ये राज भी खुल जाता है कि कौन इन्हें गा रहा था।

"इक तो सजन मेरे पास नहीं रे" इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक है। अव्यक्त प्रेम के और करुणा के मद्धिम सुरों से सजी इस कहानी में सेना का एक अधिकारी उस लड़की की मदद करना चाहता है जिसके पिता को आतंकवादियों ने पुलिस का खबरी कहकर मार डाला था और जिसका मँगेतर एक दिन अचानक लापता हो जाता है। उस लड़की का अथाह दुख देखकर वो एक मुखबिर की मदद लेते हुए मालूम कर लेता है कि उसका मँगेतर सीमापार पहुँचकर आतंकी बनने की ट्रेनिंग ले रहा है। उसे वापस बुलाने की कोशिश में भी वो सफल होता है किंतु उसी समय कहानी में एक ऐसा मोड़ आता है जो सब कुछ बदल देता है। रेशमा के प्रसिद्ध गीत का प्रासंगिक समावेश इस कहानी के मर्म को और उभार देता है।

"गर्लफ़्रेंड्स" एक ऐसे फौजी की कथा है जो आतंकियों के ख़िलाफ़ हुए एक ऑपेरशन में बुरी तरह ज़ख्मी होकर आर्मी हॉस्पिटल में पड़ा है। उस दिन की घटनाओं के दृश्य बार बार फ़्लैशबैक होकर उसकी स्मृतियों में गूँजते हैं और वो उन छोटी भूलों के लिए निरंतर पश्चाताप करता रहता है जब उन भूलों के परिणामस्वरूप उसकी टीम के दो जवान शहीद हो गए थे। हॉस्पिटल की एक बुजुर्ग नर्स जो उसे अवसाद के इस बोझ से उबारना चाहती है, उससे उन यादों को साझा करने का आग्रह करती है ताकि वो सब कुछ कहकर अपने दर्द को कुछ कम कर सके। और फिर उस ऑपेरशन वाले दिन की पूरी दास्तान वो एक दिन सुनाने लगता है। शीर्षक का राज भी इसी प्रसंग में खुलता है।

"किशनगंगा बनाम झेलम"-- एक छोटी हास्य रस प्रधान कहानी है। भारत पाकिस्तान सीमा के किसी ऐसे स्थान पर केंद्रित जहाँ युद्ध बंद है। दोनों तरफ़ की सेना गोलियों की जगह एक दूसरे को गालियाँ देकर समय बिता रही है। फिर एक दिन कुछ ऐसा घटता है कि महीनों तक उस तरफ़ वाले शांत रहते हैं, इनकी गालियों और व्यंग्य बाणों को चुपचाप सुनते हुए।

"बार इज क्लोज्ड ऑन ट्यूज़डे" में एक बार टेंडर सेना के तीन जवानों के साथ अपने अ-लौकिक अनुभव साझा कर रहा है। इस अ-लौकिक का अर्थ तो आप सब समझ ही गए होंगे, परालौकिक यानी भूत प्रेत वाली घटनाएँ....
उसी रात वहाँ से वापस लौटकर जब ये लोग घर आते हैं और रसोइए से बताते हैं कि वो लोग अभी बार से आ रहे हैं और आज छुट्टी का दिन होने के बावजूद उस बार टेंडर से शराब हासिल में सफल हो गए हैं। रसोइए के ये बताने के बाद कि वह बार टेंडर तो कल रात ही गुज़र गया , सबके होश उड़ जाते हैं।

"हैशटैग" पृष्ठ संख्या के लिहाज़ से शायद इस संग्रह की सबसे बड़ी किन्तु उतनी ही रोचक कहानी है। एक साधारण कद काठी के युवक को कॉलेज की सबसे सुंदर लड़की से इकतरफा प्रेम हो जाता है। ये जानते हुए भी कि वो किसी और को चाहती है, जनाब उसे हासिल करने की जिद में पड़ जाते हैं। करते तो और भी बहुत कुछ हैं किंतु उनके प्रयासों की इंतिहा तब होती है जब वो मिलिट्री जॉइन कर लेते हैं। उनकी ट्रेनिंग के संदर्भ में नेशनल डिफेंस अकादमी देहरादून के परिसर और माहौल से हमारा परिचय भी होता है। नए नए भर्ती हुए रंगरूट सेना की बेहद कठिन और अकल्पनीय ट्रेनिंग के दौरान किस तरह की मानसिकता से गुज़रते हैं, इसका प्रत्यक्ष अनुभव गौतम हमें कराते हैं। अपने प्यार की ख़ातिर इन सारी मुश्किलों को झेल जाता है हीरो जिसके पास उस ट्रेनिंग पीरियड के नियमों के मुताबिक
न मोबाइल है न कंप्यूटर। यानी प्रेमिका से संपर्क करने का कोई माध्यम नहीं। एक दिन पिकनिक के बहाने जब शहर की तरफ़ निकलते हैं तो नायक भागकर एक साइबर कैफे में जाता है और फेसबुक पर लॉगिन करता है। वहीं पर उसे ये सूचना मिलती है कि नायिका का विवाह उसके रक़ीब के साथ निश्चित हो चुका है। अब उसकी बटालियन के साथी उसे वहाँ से एक बार बाहर निकालने के जुगाड़ में लग जाते हैं। नायक रात को नायिका के हॉस्टल पहुँचकर उससे मिलता है और उसे बताता है कि उसे पाने की ख़ातिर ही उसने आर्मी जॉइन की है। दोनों में तक़रार होती है। अपने ठुकराए जाने का एहसास तब और परवान चढ़ता है जब नायिका उसे लताड़ते हुए सेना के एक पद का नाम लेकर अपमानजनक बात कह देती है। क्रोधित नायक उसके पेट में चाकू घोपकर वहाँ से निकल जाता है।लम्बे समय तक वो डर के साये में जीवन बिताता है। किसी दिन उसकी बहन फ़ोन पर उसे बताती है कि किसी अज्ञात हमलावर द्वारा उसकी एक सहपाठी की हत्या की कोशिश की गई थी किंतु वह लड़की बच गयी है।
इसके आगे का शेष भाग सस्पेंस से भरपूर है। आख़िरी पृष्ठ तक पहुँचे बिना ये अनुमान लगाना कठिन है कि आगे क्या हुआ होगा।

"हरी मुस्कुराहटों का कोलाज़" यह शीर्षक कहानी संवेदना से भरपूर एक खूबसूरत रचना है। छह वर्षों की नौकरी के दौरान नायक को दुबारा काश्मीर की पोस्टिंग मिलती है। उसके परिजन इस बात पर बहुत परेशान और दुखी हैं किंतु नायक संतुष्ट है कि उसे फिर इस जिम्मेदारी के लायक समझा गया। स्मृतियों की आवाजाही में पिछली पोस्टिंग की बहुत सी यादें ताजा होती हैं। नायक की इमेज एक कड़क ऑफीसर की है जो थोड़ी सी भी ढिलाई और अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करता। एक दिन अपनी विदेश से आयातित दूरबीन से सुरक्षा चौकी को देखते हुए उसका ध्यान जाता है कि एक सिपाही असावधान स्थिति में खड़ा है। तुरन्त गाड़ी निकालने का आदेश देता है।
इस कहानी का अंत अपने शीर्षक को सार्थक करते हुए बड़े मानवीय तरीके से होता है।

गौतम के लेखन का ये कमाल है कि ये किताब पाठक को बाँधे रखने में सक्षम है। कहानी और अपने पात्रों पर उनकी पकड़ कभी ढीली नहीं पड़ती। उनका स्वाभाविक ह्यूमर भी कुछ कहानियों में प्रभावी ढंग से उभरकर आया है। सैनिकों के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के एक से एक रोचक किस्से इस किताब में समाए हैं।
कर्नल साहब पहले से ही लोगों के लाड़ले हैं। इस संग्रह के बाद उनसे मोहब्बत करने वालों की संख्या में यकीनन और बढ़ोत्तरी होगी।

शनिवार, 24 मार्च 2018

पसरती ठण्ड

डॉ फ़तेह सिंह भाटी "फ़तह" का पहला कहानी संग्रह "पसरती ठण्ड" जब हमारी सराय तक पहुँचा, उस समय हम एक सप्ताह की अनचाही यात्रा पर बाहर निकल चुके थे। इसलिए उनकी किताब के दर्शन पाने में कई दिन लग गए। बहरहाल वापसी के बाद जब यह किताब सामने आई तो अपने कलात्मक आवरण के कारण पहली नज़र में ही मन को भा गयी। प्रकाशक महोदय की कृपा से कहीं इसका उल्लेख तो नहीं था किन्तु डॉ साहब से वार्तालाप करते हुए मालूम पड़ा कि आवरण का श्रेय उन्हीं को जाता है। मुखपृष्ठ के अलावा प्रयुक्त हुए कागज़ की गुणवत्ता और छपाई भी सुंदर है सिवाय प्रूफ़ के। अगर बाहरी साज सज्जा के लिए प्रकाशक और लेखक जिम्मेदार हैं तो आंतरिक हिस्से की अनगिनत भाषायी और प्रूफ़ सम्बन्धी त्रुटियों के लिए भी यही लोग उत्तरदायी हैं☺

डॉ फ़तेह सिंह भाटी किताब के पिछले भाग में दिये गए अपने परिचय में बताते हैं कि पाँच वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने पिता को खो दिया। और ये भी कि... पिता के रहते जो लोग इस बच्चे को काँधे पर उठाए फिरते थे वही अब बुलाने पर भी पलटकर नहीं देखते। तब जाना 180 डिग्री पर घूमना क्या होता है।
"वक़्त के साथ लोगों को 360 डिग्री की यात्रा कर पुनः उस बिंदु पर पहुँचते देखा तो समझ आया कि पृथ्वी गोल है।
इन टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियों से महसूस किया कि सिखाती तो ज़िन्दगी है। शिक्षा, भाषा या लिपि तो बस उसे प्रकट करने का माध्यम भर बनती है।"

उपरोक्त पंक्तियों को पढ़ते पढ़ते यह विश्वास हो चला था कि यह किताब मात्र छपास की इच्छा से अस्तित्व में आई कोई सामान्य किताब नहीं होनी चाहिए। जिन रचनाओं की पृष्ठभूमि में जीवन अनुभवों की ऐसी समृद्ध श्रृंखला हो वह साधारण नहीं हो सकती। दो पृष्ठों की भूमिका पढ़ते समय उनके आरंभिक जीवन की अन्य तमाम दुश्वारियों से भी परिचय होता है। भारत पाकिस्तान की सीमा पर स्थित एक छोटे से गाँव में उनका घर और रेगिस्तान का अनंत विस्तार जिसके बीच से गुजरते एक रास्ते पर 10 किलोमीटर दूरी पर स्थित स्कूल का पैदल चलने के अलावा कोई विकल्प नहीं। इन्हीं विषमताओं के बीच प्रारम्भिक शिक्षा पूरी कर भाटी साहब शहर पहुँचे। एम.बी.बी.एस. और एम.डी. की शिक्षा पूरी कर आज प्रोफेसर के पद पर आसीन हैं और देश के जाने माने एनैस्थिसिया विशेषज्ञ माने जाते हैं।
भाटी साहब कहते हैं कि "जीवन एक कला है। एक दूसरे के प्रति अपनापन, प्रेम, समर्पण, त्याग और समझ से सुख का अनुभव कर सकते हैं , साधनों से नहीं। इंसान सुख के साधन बढ़ाता जाता है और इस हद तक कि उसके जीवन का लक्ष्य ही पैसा हो जाता है। सारी ऊर्जा इसमें लगाकर अंततः वह स्वयं को छला महसूस करता है।"

यह स्थितियाँ उनकी कई कहानियों में बार बार आती हैं और एक सबक दे जाती हैं कि सुख और संतुष्टि का पैमाना भौतिक वस्तुएँ कभी नहीं हो सकतीं।
इन कहानियों में जहाँ वर्तमान जीवन की मानवीय/अमानवीय स्थितियों और भौतिक सुखों के मरुस्थल में भटकते लोगों के कार्य व्यवहार की सजीव तस्वीरें हैं वहीं इतिहास के पन्नों पर बिखरी हुई कुछ ऐसी गाथाएँ भी हैं जिनका पुनर्लेखन कर लेखक नें इन्हें पाठकों की स्मृति में फिर से जीवित कर दिया है।
दो भाग में लिखी गयी "झलक" नाम की कहानी, जिसमें नायक एक नितांत अवसरवादी और चरित्रहीन लड़की से विवाह कर अपने जीवन को नर्क बना लेता है, के अंत में वही नायक सोचता है--
"बुद्धिमान हो या मूर्ख, समय किसी को अपनी किताब खोलकर तो नहीं दिखाता किन्तु उस किताब के पहले पृष्ठ पर लिखी भूमिका में पूरी किताब की झलक अवश्य होती है। बुद्धिमान उससे भविष्य जान लेते हैं और मूर्ख ठीक से पढ़ते या समझते नहीं।"

इसी तरह के एक और पात्र पर केंद्रित कहानी "ठूँठ" में वे लिखते हैं--- "मित्रता एक ऐसा ताबीज है कि उसके बाद सारे भय दूर हो जाते हैं और संशय विश्वास में बदलने लगते हैं।"

"मुक्त प्रेम" एक ऐतिहासिक कहानी है जिसकी पृष्ठभूमि में उज्जैन के जनप्रिय शासक और विद्वान राजा भर्तृहरि और उनके जीवन से जुड़ी वो घटनाएँ हैं जिन्होंने उन्हें पहले राजा से योगी और फिर एक मनीषी बनाया।

"उमादे" जैसलमेर की प्रसिद्ध राजकुमारी उमादे की कथा है जिससे मारवाड़ के महाराज विवाह करते हैं किंतु नशे की हालत में उसके पास न जाकर बुलाने के लिए आई हुई दासी को अपनी कामुकता का शिकार बनाते हैं। उमादे इस पहली ग़लती को माफ़ कर दासी को दुबारा भेजती है किंतु महाराज उसके साथ फिर वही कृत्य करते हैं और इस तरह उमादे की पूरी रात इंतज़ार में ही बीत जाती है। मारवाड़ पहुँचकर उमादे राजमहल में जाने से इनकार कर देती है और रहने के लिए एक छोटा सा ग्राम माँगती है। राजा द्वारा क्षमा माँगने पर कहती है-- "इंसान से एक बार भूल हो जाय तो वह भूल होती है किंतु जब वही भूल दोहराई जाय तो वह ग़लती नहीं बल्कि उसके द्वारा लिया गया निर्णय होता है जो क्षमा योग्य नहीं।"
आत्मसम्मान और गरिमा की प्रतिमूर्ति ऐसी राजकुमारी की यह कहानी इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में एक है।

"पलायन" जैसलमेर रियासत के अंतर्गत चौरासी गाँवों में बसे पालीवाल ब्राह्मणों के विस्थापन की दारुण कथा है। अपने आन बान और सम्मान को सुरक्षित रखने के लिए कई पीढ़ियों के अथक श्रम से सँवारी हुई अपनी मातृभूमि को सदा के लिये छोड़ने में चौरासी गाँवों के उन निवासियों को कितने कष्ट और वेदना से गुज़रना पड़ा होगा, इसकी कल्पना भी कठिन है।
शापित धोरा, और सिन्दूरी हो जाना भी अच्छी कहानियाँ हैं।
"पूर्वाग्रह" इस संग्रह की आख़िरी और बिल्कुल अलग विषय पर लिखी गयी बढ़िया कहानी है, जिसके अंत में नायिका सोचती है--

"इंसान के साथ छल भाग्य करता है या उसके विचार, कोई नहीं जानता। किन्तु अनेक बार वह छला अवश्य जाता है। तभी तो सीधी राह चलते चलते अचानक वह मुड़ जाता है।"

पसरती ठंड
डॉ फतेह सिंह भाटी फ़तह
प्रकाशक - हिन्द युग्म
मूल्य - ₹ १००
प्रकाशन वर्ष - २०१८

विज्ञान की दुनिया- देवेन्द्र मेवाड़ी

विज्ञान की दुनिया ( पेपरबैक संस्करण)
लेखक-- देवेंद्र मेवाड़ी
मूल्य- ₹ १५० मात्र
संस्करण- 2018

इससे पहले कि इस किताब के बारे में कुछ कहें, एक छोटी सी चर्चा नवारुण प्रकाशन और संजय जोशी के बारे में। संजय जोशी को सबसे पहले प्रख्यात हिन्दी कथाकार शेखर जोशी के सुपुत्र के रूप में जाना था। हुआ यूँ कि शेखर जी का फ़ोन किसी दिन नहीं लग रहा था और उसी समय किसी ने इनका नम्बर भेजकर कहा कि संजय भाई को फ़ोन कर लो। उनसे शेखर जी का हालचाल मिल जाएगा।
फिर धीरे धीरे उनकी सिनेमाई गतिविधियों और "प्रतिरोध का सिनेमा" के बारे में जाना। अपने जुनून और जिद के प्रति अत्यंत निष्ठावान और समर्पित संजय जोशी ने कुछ वर्ष पहले "नवारुण प्रकाशन" की स्थापना की। यहाँ भी उनका उद्देश्य धन संचय नहीं रहा। इसीलिए उन्होंने मात्र उन विधाओं की किताबें प्रकाशित की जिन्हें वे अपने विचारों और प्रतिबद्धता के अनुरूप पाते हैं। कहानी, उपन्यास, और सामयिक कविता जैसी लाभदायक विधाओं का क्रम अगले चरण में ही आएगा। लीक से हटकर काम करने के इसी प्रयास का परिणाम है यह किताब। इसके लेखक देवेंद्र मेवाड़ी जी को कौन नहीं जानता होगा। वरिष्ठ विज्ञान लेखक, अनुवादक, संपादक और विद्वान वक्ता के रूप में उनकी उपलब्धियाँ आश्चर्यजनक हैं। दूर दराज के विद्यालयों में जाकर हजारों बच्चों को विज्ञान कथाएँ सुनाने वाले मेवाड़ी साहब कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं।
देवेंद्र मेवाड़ी जी ने अपनी इस खूबसूरत किताब को समर्पित किया है " उन हजारों प्यारे बच्चों को जो जानना चाहते हैं कि उनकी यह दुनिया कैसी है..."

"विज्ञान की दुनिया" नामक इस किताब में उनके तीस लेख हैं जिनमें विज्ञान, ब्रह्मांड, पृथ्वी,अंतरिक्ष, धूमकेतु, सुनीता विलियम्स, चंद्रयान, रोबोट, डायनासोर, अन्य पशु पक्षी, दीमक, सारस, फूलों, पर्यावरण, आम, त्योहार ज्योनार, परियाँ, लाइकेन, 12 वर्षों बाद खिलने वाला फूल नीला कुरिंजी, प्राचीन भारत के महान खगोल वैज्ञानिक, कुछ अनसुलझे रहस्य, जैसे विविध विषयों का वर्णन बेहद रोचक और सरस शैली में हुआ है। बच्चों के लिए रचे गए इस अनुपम उपहार के लिए संजय जोशी और देवेंद्र मेवाड़ी को जितना धन्यवाद कहें, कम है। मानसी मेवाड़ी द्वारा निर्मित इस किताब का आवरण बेहद सुंदर है। प्रकाशन के अन्य मानकों पर भी यह पुस्तक शानदार है। पेपर और अक्षरों के आकार की गुणवत्ता भी काबिले तारीफ़ है।
कुछ व्यक्तिगत कारणों से संजय भाई इस किताब को परिदृश्य प्रकाशन मुम्बई में उपलब्ध नहीं करा रहे हैं। अतः इस पुस्तक को प्राप्त करने के इच्छुक आदरणीय मित्र गण सीधे संजय जोशी जी से ही संपर्क करें।

नवारुण प्रकाशन
Sanjay Joshi
Deven Mewari

रेखना मेरी जान

2017 के पटना पुस्तक मेले का समय... अचानक एक खबर ने लोगों को चौंका दिया। इसी शहर के निवासी और जाने माने लेखक रत्नेश्वर सिंह इस ख़बर के मुख्य आकर्षण थे। "नॉवेल्टी एंड कंपनी" नामक प्रकाशक से उनके नए उपन्यास के लिए ढाई लाख का साइनिंग अमाउंट और पौने दो करोड़ रुपये का अनुबंध काफी समय तक चर्चा में रहा। जिस देश में हिन्दी लेखकों की किताब प्रकाशक उपकार समझकर छापते हों, वहाँ यह खबर सुर्खियों में तो आनी ही थी। उनकी किताब के प्रति लोगों की जिज्ञासा भी उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। आख़िरकार सितंबर 2017 में यह प्रकाशित होकर पाठकों की दुनिया में उपस्थित हुई। इसके नाम को लेकर भी बड़ा असमंजस रहा।
नवभारत टाइम्स मुम्बई संस्करण के लिए धीरेन्द्र अस्थाना जी द्वारा लिखी गयी समीक्षा यह असमंजस ख़त्म हुआ और मालूम पड़ा कि यह किताब ग्लोबल वार्मिंग पर केंद्रित है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में एक प्रेम कथा अवश्य है किन्तु वह कहानी की संवाहक मात्र है। मूल कथा में पर्यावरण की जो चिंता मौज़ूद है, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है।

किताब के आरम्भ में "समर्पण" और "भूमिका" से गुजरते हुए रत्नेश्वर की शालीन भाषा से परिचय हुआ और पुस्तक की मूल कथा से संबंधित बहुत सी आवश्यक जानकारियाँ भी मिलीं। उनके स्वभाव में प्रेम और आत्मीयता की भूमिका कितनी अहम है, इसे भूमिका के आरंभ में पत्नी को सम्बोधित उनकी पंक्तियों से समझा जा सकता है।

सबसे पहले शीर्षक को डिकोड कर दूँ ताकि अन्य लोग भी इस राज को समझ जाएँ। रेखना यानी मनुष्य द्वारा खींची गई रेखाएँ और मेरी, जान दो तूफानों के नाम हैं। इस अटपटे शीर्षक के पीछे लेखक का तर्क ये था कि लोग इसे साधारण सी प्रेम कहानी मानकर ही पढ़ना शुरू करें तो ठीक है, क्योंकि भारी भरकम नामों से उम्मीदें ज़्यादा लगा बैठते हैं पाठक।

यह उपन्यास वैश्विक ताप यानी ग्लोबल वार्मिंग के निरंतर बढ़ते संकट के कारण आने वाले दिनों की एक भयावह तस्वीर प्रस्तुत करता है। पिछले डेढ़ दो दशकों से विश्व स्तर पर पर्यावरण में चिंतनीय बदलाव हुए हैं। 2005 जुलाई में मुम्बई और महाराष्ट्र में आये भयानक प्राकृतिक प्रकोप को कौन भूल सकता है । अंटार्कटिका एवं हिमालय में भूस्खलन और सिकुड़न की खबरें प्रायः आती रहती हैं। इनके कारण समुद्र का निरंतर बढ़ता हुआ जलस्तर विश्व के तमाम देशों के लिए प्रलयंकर संकट बनने की कगार पर है।
इन्हीं चिंताजनक स्थितियों ने रत्नेश्वर सिंह को यह उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया। विषय सामयिक और चुनौती पूर्ण था। लगभग आठ वर्षों तक अध्ययन और शोध की प्रक्रिया से गुजरने के बाद उन्होंने एक मासूम सी प्रेम कहानी को पार्श्व में रखकर इस कथानक का ताना बाना बुना। ये भविष्य का वह समय है जब मेरी और जान नामक दो बड़े प्राकृतिक तूफानों के कुछ ही दिनों में आने की चेतावनी मिल चुकी है।

कहानी के पहले सिरे पर ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में आते दुनिया के अन्य देशों के साथ भारत के समुद्री तटों पर बसे कुछ शहर और पड़ोसी बांग्लादेश है। घोषणा हो चुकी है कि बाँग्लादेश ख़तरे में है। इस विभीषिका से स्वयं जूझ रहे भारत ने कह दिया है कि वह सारे बाँग्लादेशियों को पनाह देने में असमर्थ है।

दूसरी तरफ़ सर्वेक्षण के लिए अंटार्कटिका गए विश्व के चुने हुए वैज्ञानिकों का एक दल है। हालात वहाँ के भी ठीक नही हैं। बर्फ़ की पिघलन लगातार बढ़ रही है। अचानक हालात बिगड़ जाते हैं और फिर अमेरिका और भारत द्वारा उन्हें सुरक्षित निकालने के प्रयास होने लगते हैं।

मूल कथा के विकास क्रम में ही रत्नेश्वर बड़ी सहजता से हमें अतीत के उन लम्हों तक ले जाते हैं जो मानवता के चेहरे पर किसी काले धब्बे से कम नहीं हैं। बाँग्लादेश मुक्ति संग्राम के उन दिनों का प्रसंग बेहद मार्मिक है जब पाकिस्तान की सेना ने यहाँ के निवासियों विशेष कर महिलाओं और बच्चों पर बेइंतिहा अत्याचार किए। इसी तरह बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप बाँग्लादेश में हिंदुओं के साथ घोर अमानवीय व्यवहार हुआ और मंदिरों को मस्जिदों में तब्दील किया गया। रत्नेश्वर की सधी हुई मार्मिक लेखनी इतिहास के इन पन्नों को बड़ी संवेदनशीलता से हमारे सामने प्रस्तुत करती है।

बारिशाल में वैशाख के पहले दिन मनाए जाने वाले उत्सव की तैयारियाँ चल रही हैं। इसी क्रम में हमारा परिचय  फ़रीद,  सुमोना और अन्य किरदारों से होता है। फ़रीद और सुमोना की मोहब्बत के बिल्कुल शुरुआती दिन हैं। यहाँ तक कि सुमोना ने अब तक अपनी चाहत को स्वीकार भी नहीं किया है।
मेरी और जान निर्धारित समय से पहले ही आकर आनंद और उत्सव की सारी तैयारियों को नष्ट कर देते हैं। कुदरत का कहर पूरे शहर को तहस नहस कर जाता है। अब हर किसी के सामने सबसे बड़ी चुनौती वहाँ से जान बचाकर निकलने की है। फ़रीद उस तूफानी बारिश में किसी तरह सुमोना के साथ सुरक्षित रहने की कोशिश करता है। थोड़ी देर में ही सुमोना को लेने उसके पिता पहुँच जाते हैं। उनके जाने के बाद फ़रीद भी अपने घर के लिए निकलता है तो उसे रास्ते में किसी लड़की की कराह सुनाई पड़ती है। गिरे हुए भारी भरकम खंबों के बीच जीवन और मृत्यु से संघर्ष करती वह लड़की उसकी सहपाठी नूर थी। बहुत कोशिशों के बाद भी फ़रीद उसे वहाँ से नहीं निकाल पाता और उसके देखते देखते वो दम तोड़ देती है। जिस संवेदना और मानवीयता से इस विवशता का वर्णन लेखक ने किया है वह मन को बहुत गहराई तक व्यथित कर जाता है। प्रकृति का प्रकोप अपने चरम पर है। मूसलाधार बारिश और तूफानी हवा से धीरे धीरे बचाव के सारे रास्ते बंद होते जाते हैं। लोगों के सामने घर छोड़कर भागने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं रहा। रत्नेश्वर जी ने इस विभीषिका बहुत जीवंत और प्रभावशाली चित्रण किया है। जीवन में कई बार आ चुके इस तरह के अनेक अनुभव आँखों के सामने प्रत्यक्ष हो उठे।

दास्तान का अहम हिस्सा अभी भी शेष है किंतु और ज्यादा बताने से पाठकों का आनंद बाधित होगा अतः अब यहीं विराम लेते हैं। प्रूफ़ की कमियाँ इस किताब में भी हैं। कुछ दूर तक तो सब ठीकठाक रहा किन्तु बाद में बहुत जगहों पर ये त्रुटियाँ अखरने वाली रहीं।

रत्नेश्वर उन रेखनाओं की बात बार बार करते हैं जिन्हें मनुष्य नें स्वयं खींच रखा है । मनुष्य जाति और धर्म की इन रेखाओं द्वारा विभाजित दुनिया में जीने के लिए बाध्य है।
यह किताब पढ़ते समय उनकी सधी हुई परिपक्व भाषा बेहद प्रभावित करती है। उन्होंने कथानक के अनुरूप बंगाली के शब्दों का प्रयोग भी खूब किया है और ये उनकी विनम्रता है कि पृष्ठ के निचले हिस्से में उनके अर्थ भी दिए हैं वरना बहुत से लेखक इस तरह के सहयोग को "पाठकों की समझ को कमतर आँकने की" कवायद कहकर सीधे नकार देते हैं। अठारह किताबें लिख चुके और बेस्टसेलर घोषित होने के बाद भी रत्नेश्वर के स्वभाव की ये विनम्रता, लेखन के प्रति आस्था और भाषा के सौंदर्य का यह आग्रह इसी तरह कायम रहे, यही शुभकामना। अब आप सबके लिए इसी पुस्तक से कुछ चुने हुए अंश......

जब प्रेम हो जाता है तो आदमी सुध बुध खो बैठता है और जब प्रेम मिल जाता है तो वह सारी लालसाओं से ऊपर, भयमुक्त आनंद को पा लेता है।

प्रेम से परिपूर्ण एक खुशहाल परिवार का जीवन जीना ही सुख है।

बचपन से लेकर आजतक ज़िन्दगी ने खूब दौड़ाया भगाया है। आड़े तिरछे ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर चलना ही मानो जीवन की नियति हो।

जहाँ बचपन बीतता है, उस जगह का एक अलग मोह होता ही है। वैसे मोह का क्या, वो तो हो ही जाता है, दुनिया में हरेक को एक दूसरे से जोड़े रखता है। मोह न हो तो जीने का क्या आनंद। और यही मोह सारे बंधनों और दुखों का कारण भी होता है।

मकड़ी जाला बनाती है अपने रहने के लिए और शिकार फँसाने के लिए किन्तु हम अपनी ही खींची गई रेखनाओं के जाल में ऐसा फँसते हैं कि खुद ही नहीं निकल पाते कभी उससे।

कहते हैं कि अच्छे भविष्य के लिए रुककर इंतज़ार करने से बेहतर है उसकी खोज में चल पड़ना। कोशिशें अक्सर कामयाब हो जाती हैं और फ़िर ये पछतावा भी नहीं होता कि मैंने कोशिश नहीं की।

अपने मातृत्व से अलग होना कितना कष्टप्रद होता है। संसार के प्रत्येक जीव का सम्मोहन शायद उसके मातृत्व बोध से ही सबसे ज़्यादा होता है। पर यह भी कहा जाता है कि जिसने भी मातृत्व बोध या मातृत्व सम्मोहन से अपने आपको उबार लिया है, वही दुनिया में श्रेष्ठता को पाता है।

रेखना मेरी जान
रत्नेश्वर सिंह
प्रकाशक -- ब्लू वर्ड
वर्ष - 2017
पृष्ठ- 172
मूल्य- 225

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विरह विगलित कदंब पुष्पा भारती साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उ...