बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

बदलता वक़्त-- रश्मि रविजा

"बदलता वक्त "

शाम होने को आयी थी. नीला आकाश सिन्दूरी हो चुका था। पक्षी कतार में चहचहाते हुए अपने घोंसले की तरफ लौट रहे थे । वातावरण में उमस सी थी। रत्नेश शर्मा घर के बरामदे पर कुर्सी पर बैठे हाथ में पकडे अखबार से अपने चेहरे पर हवा कर रहे थे। सुबह से अखबार का एक एक अक्षर पढ़ चुके थे .बहुत कुछ दुबारा भी . और कुछ करने को था नहीं. सोचे सड़क पर ही चहलकदमी कर आयें पर पहना हुआ कुरता पैजामा  धुल धुल कर छीज़ गया था । रंग भी मटमैला पड़ गया था। उन्हें उठ कर कुरता बदलने में आलस हुआ और कुरता बदलें भी क्यूँ , सिर्फ निरुद्देश्य भटकने के लिए । अब कोई उत्साह भी तो नहीं रह गया । पर एक समय था जब हर वक्त कलफ लगे झक्क सफ़ेद कुरते पैजामे में रहते थे। व्यस्तता भी तो कितनी थी। हर वक़्त किसी न किसी का आना-जाना लगा रहता था। कितनी योजनायें बनाने होती थीं । कितना हिसाब-किताब करना होता था। अब तो काम ही नहीं रह गया, वरना उनके जैसा कर्मठ व्यक्ति अभी यूँ खाली बैठा होता..

छात्र जीवन से ही वे एक मेधावी छात्र रहे। उनकी प्रतिभा देख रिश्तेदार,स्कूल के अध्यापक सब कहते कि वे एक बड़े अफसर बनेंगे। पर रत्नेश शर्मा की अलग ही धुन थी। उनके कस्बे में कोई स्कूल नहीं था। वे चार मील साइकिल चलाकर स्कूल जाते । गर्मी में स्कूल से लौटते वक्त दोपहर को भयंकर लू चलती ।सर पर तपता सूरज और नीचे गरम धरती । पसीने से तरबतर हो वे तेजी से पैडल मारते जाते। जाड़े के दिनों में सुबह स्कूल जाते वक्त ठंढी हवा तीर की तरह काटती । कानों पर कसकर मफलर लपेटा होता, पैरों में मोज़े पहने होते फिर भी ठिठुरते पैर साइकिल पर पैडल मारने में आनाकानी करते ।

वे हमेशा सोचते काश उनके कस्बे में ही स्कूल होता तो उन सबको उतनी तकलीफ नहीं उठानी पड़ती। स्कूल के इतनी दूर होने की वजह से कई लड़के अनपढ़ ही रह गए । बहुत से माता-पिता अपने बच्चों उतनी दूर भेजना गवारा नहीं करते थे। कुछ बच्चे ही शैतान थे । वे घर से तो निकलते स्कूल जाने के नाम पर लेकिन बीच में पड़ने वाले बगीचे में ही खेलते रहते और शाम को घर वापस । दो तीन महीने बाद उनके माता-पिता को बच्चों की कारस्तानी पता चल जाती और फिर वे उन्हें किसी काम धंधे में लगा देते और स्कूल भेजना बंद कर देते। लड़कियों को तो माता-पिता स्कूल भेजते ही नहीं थे। जिन्हें पढने में रूचि होती वे अपने भाइयों की सहायता से ही अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लेतीं और अपना नाम लिखना और चिट्ठी पत्री लिखना-पढना सीख जातीं। बस इतना ही उनके लिए काफी समझा जाता और उन्हें घर के काम काज,खाना बनाना,सिलाई-कढाई यही सब सिखाया जाता।

रत्नेश शर्मा के मन में स्कूल के दिनों से ही एक सपना पलने लगा कि वे अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने कस्बे में स्कूल खोलेंगे और वहाँ के बच्चों को शिक्षा प्रदान करेंगे। स्कूली शिक्षा के बाद उन्हें, उनके पिताजी ने शहर के कॉलेज में पढने के लिए भेजा। उनके साथ के सारे लड़के कॉलेज के बाद कोई नौकरी करने और फिर शादी करके शहर में ही बस जाने का सपना देखते । वे अपने कस्बे में वापस लौटने की सोचते भी नहीं। पर रत्नेश शर्मा का सपना बिलकुल अलग था .शुरू में उन्होंने अपने मित्रों से अपने मन की बात बतायी भी तो उनका मजाक उड़ाया जाने लगा। फिर उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। जब बी.ए. करने के बाद उन्होंने घर पर यह बात बतायी तो पिता बहुत निराश हुए। लेकिन रत्नेश शर्मा जब अपने विचारों पर दृढ रहे तो पिता ने भी उनका साथ दिया। उनका पुश्तैनी मकान बहुत बड़ा था और उतने बड़े मकान में बस रत्नेश शर्मा का ही परिवार रहता था। उनके चाचा शहर में नौकरी करते थे और वही मकान बना कर बस गए थे। उनकी एक बहन की शादी हो चुकी थी और इतने बड़े मकान में बस तीन प्राणी थे। मकान के एक हिस्से में उन्होंने स्कूल खोलने का निर्णय लिया।

जब कस्बे के लोगों ने उनका ये विचार सुना तो बहुत खुश हुए और सबने यथायोग्य अपना सहयोग दिया। तब जमान ही ऐसा था । पूरा क़स्बा एक परिवार की तरह था। किसी की बेटी की शादी हो , सब लोग मदद के लिए आ जाते। मिल जुल कर काम बाँट लेते। स्कूल के लिए भी कुछ ने मिलकर कुर्सियों और बेंचों का इंतजाम कर दिया। कुछ ने ब्लैकबोर्ड लगवा दिए। कुछ ने पेंटिंग करवा दी। अपने साथ ही एक दो मित्रों को उन्होंने स्कूल में पढ़ाने के लिए राजी कर लिया और इस तरह स्कूल की शुरुआत हो गयी। शुरू में तो बहुत कम बच्चे आये, पर धीरे धीरे रत्नेश शर्मा और उनके मित्रों की मेहनत रंग लाई। लगन से पढ़ाने पर उनके स्कूल के बच्चों का रिजल्ट बहुत अच्छा होने लगा और धीरे धीरे बच्चों की संख्या में बढ़ती गयी। लडकियाँ भी पढ़ने आने लगीं । आस-पास के कस्बों से भी बच्चे आने लगे । रत्नेश शर्मा सुबह से स्कूल की देखभाल में लग जाते और देर रात तक सिलेबस बनाते,बच्चों की प्रगति का लेखा-जोखा तैयार करते। पास के शहर से सामान्य ज्ञान की किताबें लाते। पढ़ाई को किस तरह रोचक बनाया जाए,इस जुगत में वे लगे होते।

चार साल निकल गए और इस बार दसवीं में इस स्कूल के आठ बच्चे थे।  बच्चों से ज्यादा रत्नेश शर्मा को परीक्षाफल की चिंता थी। जब रिजल्ट निकला तो आठों बच्चों को फर्स्ट डिविज़न मिला था और दो बच्चे मेरिट में भी आये थे ।  इस स्कूल के नाम का डंका दूर दूर तक बजने लगा. रत्नेश शर्मा का आत्मविश्वास और बढ़ा। स्कूल को अनुदान मिलने लगा। पास की जगह में नए कक्षाओं का निर्माण हुआ। बहुत से नए शिक्षक भी इस स्कूल में पढ़ाने को इच्छुक हुए। अब इस स्कूल के बच्चे आगे चलकर इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई करने लगे। जब उनका मेडिकल और इंजीनियरिंग में चयन हो जाता तो वे अपन पुराने स्कूल को नहीं भूलते और स्कूल में मिठाई का डब्बा लेकर जरूर आते। रत्नेश शर्मा की आँखें नम हो जाती,मन गदगद हो जाता और अपने छात्रों की सफलता पर सीना गर्व से फूल जाता ।

रत्नेश शर्मा की शादी हो गयी और नीलिमा उनकी जीवनसंगिनी बन कर आयीं। नीलिमा का गला बहुत मधुर था और वे चित्रकला में भी प्रवीण थीं। वे खुद बड़ी रूचि से स्कूल में संगीत और चित्रकला सिखातीं। समय के साथ वे जुड़वां बच्चों के माता-पिता भी बने। बेटे का नाम रखा राहुल और बेटी का रोहिणी।
स्कूल दिनोदिन प्रगति कर रहा था ।बीतते समय के साथ उनके कस्बे में अब नए नए दफ्तर और बैंक खुलने लगे थे। शांत कस्बे में अब भीड़-भाड़ होने लगी। जहाँ इक्का दुक्का कार हुआ करती थी वहीं अब ट्रैफिक जाम होने लगा। कस्बा शहर का रूप लेने लगा। गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं और वे स्कूल के अगले सत्र का सिलेबस बनाने में जुटे हुए थे। उनके कानों में उड़ती हुई खबर पड़ी कि पास के शहर के एक बड़े अंग्रेजी स्कूल की एक शाखा उनके कस्बे में भी खुलने वाली है। उन्हें ख़ुशी हुई कि अच्छा है। उनके स्कूल पर बहुत ज्यादा भार पड़ रहा था ।कुछ बच्चे उस स्कूल में चले जायेंगे। पर जब गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुला तो उन्होंने पाया,उनके स्कूल के आधे बच्चे उस अंग्रेजी स्कूल में चले गए। नयी चमकदार बिल्डिंग थी। चमचमाता हुआ स्कूल। लोग इसी चमक-दमक के प्रलोभन में आ गए थे, पर उन्होंने ज्यादा फ़िक्र नहीं की । उन्हें यकीन था कि वे बहुत लगन से पढ़ाते हैं और उनके स्कूल का बोर्ड रिजल्ट भी अच्छा होता है। बच्चे मन से पढेंगे।

पर धीरे धीरे उनकी आशा निराशा में बदलती गयी। हर साल स्कूल के कुछ बच्चे उस स्कूल में चले जाते और उनके स्कूल में नए एडमिशन कम होने लगे । एक दिन तो राहुल भी जिद करने लगा कि मोहल्ले के सारे दोस्त अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं,वो भी वहीँ पढ़ेगा,अंग्रेजी में बोलना सीखेगा।  एक दिन उन्होंने बहाने से आस-पास रहने वाले और उस स्कूल में पढने वाले बच्चों को बुलाकर उनका टेस्ट लिया तो पाया कि बस ऊपरी चमक दमक ही है। बच्चों का मैथ्स और अंग्रेजी का व्याकरण बहुत ही कमजोर है। उस स्कूल का दसवीं का रिजल्ट भी अच्छा नहीं आया फिर भी लोगों को ज्यादा परवाह नहीं थी। बच्चा अंग्रेजी के दो-चार शब्द बोल रहा है, कड़क यूनिफॉर्म में बस में बैठकर स्कूल जाता है , यही देख लोग संतुष्ट हो जाते। खूब धूमधाम से वार्षिक प्रोग्राम मनाया जाता। लोग बताते , एक महीने से स्कूल में पढ़ाई नहीं वार्षिक प्रोग्राम की ही तैयारी चल रही है। शानदार स्टेज बनवाया जाता , किराए पर कॉस्टयूम ,नृत्य-गीत सिखाने वाले बुलाये जाते। खूब रौनक होती । जबकि उनके स्कूल में तो प्रांगण में ही उन्होंने एक सीमेंट का चबूतरा बनवा रखा था, जिसका स्टेज के रूप में प्रयोग किया  जाता। सारी तैयारी शिक्षक और बच्चे ही मिल कर करते। कपड़े भी बच्चे अपने घर से या आस-पड़ोस से मांग कर पहनते। नीलिमा की निगरानी में सारी तैयारी होती। रामायण के अंश , हरिश्चंद्र ,बालक ध्रुव की कथा का मंचन किया जाता । इतने छोटे बच्चों की अभिनय कला देख वे अभिभूत हो जाते । रंग बिरंगी साड़ियों का लहंगा पहन छोटी छोटी बच्चियाँ जब लोक नृत्य करतीं तो समाँ बँध जाता । पर उन्होंने सुना कि उस अंग्रेजी स्कूल में फ़िल्मी संगीत पर तेज नृत्य किये जाते हैं और आजकल के बच्चों को वही अच्छा लगता । राहुल अपने दोस्तों से सीख कभी कभी नीलिमा और रोहिणी के सामने वो डांस करके दिखाता । वे हँसी से लोट पोट होती रहतीं पर अगर उनकी आहट भी मिल जाती तो सब चुप हो जाते और राहुल वहाँ से चला जाता। वह अब कम से कम उनके सामने आता। उन्हें अपना बेटा ही खोता हुआ नज़र आ रहा था, पर वे दिल को तसल्ली देते कि उनका एक ही बेटा नहीं है। स्कूल के सारे छात्र उनके बच्चे हैं, उन्हें सबकी चिंता करनी है।

राहुल के अन्दर आक्रोश भरने लगा था और इसे व्यक्त करने का जरिया उसने अपनी पढ़ाई को बनाया। वह अपनी पढ़ाई के प्रति लापरवाह होने लगा।  रत्नेश स्कूल के काम में इतने उलझे होते कि नीलिमा के बार बार कहने पर भी राहुल पर विशेष ध्यान नहीं दे पाए। वहीं बिटिया रोहिणी बिना शिकायत किये उनके स्कूल में ही बहुत मन से पढ़ती। वे नीलिमा से कह देते , “रोहिणी भी तो राहुल की क्लास में ही है, उसे भी कहाँ पढ़ा पाता हूँ पर वो कितने अच्छे अंक लाती है।” नीलिमा कहती, “सब बच्चे अलग होते हैं ,उन पर अलग तरीके से ध्यान देने की जरूरत है।” पर स्कूल की चिंता में उलझे वे इस बात की गंभीरता को नहीं समझ पाए। रोहिणी दसवीं में भी मेरिट में आयी और राहुल सेकेण्ड डिविज़न से पास हुआ . अब शहर जाकर कॉलेज में एडमिशन कराना था । उनका बहुत मन था , दोनों बच्चों को होस्टल में रख कर पढ़ाएं ,पर अब पैसों की कमी बहुत खलने लगी थी । वे अपने वेतन का बड़ा हिस्सा भी स्कूल की जरूरतें पूरी करने में खर्च कर देते। नीलिमा उनकी मजबूरी समझती थी। उसने रोहिणी को शहर में रहने वाली अपनी बहन के पास भेजकर पढ़ाने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने बहुत बेमन से हामी भरी। रोहन को कम से कम खर्चे में हॉस्टल में रह कर पढ़ाने का इंतजाम किया। उस पूरी रात वे सो नहीं पाए । अपने बच्चों के लिए वे उच्च शिक्षा और जरूरी सुविधाएं भी नहीं जुटा पा रहे हैं । वर्षों पहले लिया गया उनका निर्णय क्या गलत था ? उन्होंने भी नौकरी की होती तो आज ऊँचे पद पर होते और अच्छे पैसे कमा रहे होते। फिर उन्होंने सर झटक दिया , वे इतना स्वार्थी बन कर कैसे सोच सकते हैं ? इस स्कूल के माध्यम से कितने ही बच्चों को शिक्षा मिली, उनका जीवन संवर गया। अपने बच्चों के लिए विलासिता की कुछ वस्तुएं नहीं जुटा सके तो इसका अफ़सोस नहीं करना चाहिए ।

वक़्त गुजरता गया । उनका मन था रोहिणी भी पढ़ लिख कर आत्मनिर्भर हो जाए तभी उसकी शादी करें । वो पढने में तेज थी ।कम्पीटीशन पास कर बड़ी अफसर बन सकती थी , पर फिर उनकी मजबूरी आड़े आ गयी। बी ए. के बाद राहुल ने दिल्ली जाकर पढने की इच्छा व्यक्त की और उन्हें उसे वहां भेजने के लिए पैसे का इंतजाम करना पड़ा। रोहिणी ने विश्वास दिलाया,उसके पास किताबें हैं। वो घर पर रहकर ही तैयारी करेगी। अचानक इसी बीच उनके एक पुराने मित्र ने अपने बेटे के लिए बिना किसी दान दहेज़ के रोहिणी का हाथ मांग लिया । नीलिमा ने उन्हें बहुत समझाया कि हमारे पास पैसे नहीं हैं और बिना पैसे के ही इतना अच्छा घर वर मिल रहा है। आपके मित्र हैं , बिटिया शादी के बाद भी पढ़ लेगी। रोहिणी ने भी निराश नहीं किया। अफसर तो नहीं बन पाई पर बी.एड की पढाई की और फिर शिक्षिका बन गयी। राहुल भी किसी प्राइवेट कम्पनी में है। अपने खर्च के पैसे निकाल लेता है । घर बहुत कम आता है, आता भी है तो उनसे दूर दूर ही रहता है। नीलिमा से ही उसके हाल चाल मिलते हैं।

धीरे धीरे उनके स्कूल में बच्चे बहुत ही कम हो गए। कुछ गरीब घर के बच्चे जो अंग्रेजी स्कूल की फीस नहीं दे सकते थे, बस वही आते। उनके स्कूल के शिक्षक भी ज्यादा वेतन पर उस अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने चले गए । बच्चे कम होते गए। फीस के रूप में होने वाली आय कम होती गयी। मरम्मत न होने से स्कूल की हालत भी खस्ता होती गयी। अब पहले वाली रौनक भी नहीं रही। अपनी आँखों के सामने अपने सपनों को परवान चढ़ते और फिर यूँ धीरे धीरे बिखरते देख,रत्नेश शर्मा का ह्रदय रो देता। ऐसे ही बुझे मन से बैठे थे कि दरवाजे के सामने एक कार रुकी। उन्हें लगा कोई किसी का पता पूछ्ने आया है , वरना उनके यहाँ कौन आएगा। एक सज्जन अपने एक छोटे से बेटे के साथ उतरे और उनके घर की तरफ ही बढ़ने लगे। रत्नेश शर्मा उठकर कर खड़े हो गए । वे सज्जन उनके पैरों तक झुक आये और अपने बेटे से बोले -- “मास्टर जी को प्रणाम करो बेटा। आज जो कुछ भी हूँ इनकी पढ़ाई की वजह से ही हूँ।" फिर उनसे मुख़ातिब हुए-- "आपने पहचाना नहीं मास्टर साब। मैं जितेन हूँ। मेडिकल करने के बाद विदेश चला गया था। अब अपने देश लौटा तो सबसे पहले आपकी चरणधूलि लेने चला आया। मैंने अपने बेटे को आपके बारे में बहुत कुछ बताया है। कितनी मेहनत से आप पढ़ाते थे। शाम को अचानक हमारे घर आ जाया करते थे, ये देखने कि हमलोग घर पर पढ़ रहे हैं या नहीं।"
रत्नेश शर्मा की आँखें धुंधली हो आयीं । मेहनत कभी व्यर्थ नहीं जाती। उनका खोया आत्मविश्वास फिर से जागने लगा । वे दुगुने जोश से भर गए। जितने बच्चे हैं उनके स्कूल में, उन्हें मन से पढ़ाएंगे। किसी की ज़िन्दगी बना पायें इससे ज्यादा और चाहिए ही क्या उन्हें।

रचनाकार- रश्मि रविजा

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

बुरी औरत हूँ मैं- वंदना गुप्ता

Vandana Gupta की पहचान मूलतः एक कवियित्री के रूप में है किन्तु गद्य की अन्य विधाओं मसलन कहानी , उपन्यास, आलोचना, व्यंग्य आदि में भी उनका खासा दखल है।
"बुरी औरत हूँ मैं" उनका पहला कहानी संग्रह है जो 2017 में ए.पी.एन. पब्लिकेशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ। व्यक्तिगत रूप से यह शीर्षक मुझे अच्छा नहीं लगा। दरअसल आजकल दौर ही सनसनीे का है। ये सनसनी चाहे शीर्षक द्वारा फैलाई जाय, चाहे किसी घटिया आवरण द्वारा। हालाँकि Kunwar Ravindra साहब द्वारा निर्मित इस किताब का आवरण बहुत बढ़िया है।
शीर्षकों से जुड़ा एक दूसरा पक्ष ये भी है कि तमाम प्रसिद्ध कहानी संग्रहों की तरह शीर्षक धाँसू हो किन्तु पूरे संग्रह में कहानी छोड़कर बाकी सारे तत्व हों , तो भी पाठक के किस काम के।
अपने कई स्वनामधन्य कथाकारों, जिन्हें वे बड़े आदर से समकालीन रचनाकार का ख़िताब देती हैं और बड़े उत्साह से उन्हें पढ़कर बड़ी बड़ी समीक्षाएँ लिखती हैं, से बहुत बेहतर वे स्वयं लिखती हैं। कथ्य के लिहाज से एक दो कमजोर कहानियों को छोड़कर अधिकांश रचनाएँ अलग अलग विषयों और पात्रों को बखूबी प्रस्तुत करती हैं। कुछ प्रेम कहानियों की मूल थीम में भी थोड़ा सा दोहराव जैसा लगा। बावजूद इसके अधिकांश किस्सों में व्याप्त किस्सागोई की विविधता ये दर्शाती है कि रचनाकार अपने आसपास हो रही घटनाओं और चरित्रों को कितनी सजगता और सूक्ष्मता से ग्रहण करने में सक्षम है। किसी भी कहानी संग्रह को पढ़ते समय पाठक अपनी अपनी रुचि की कहानियाँ चुन लेते हैं। मैं भी वही कर रहा हूँ। कुछ ऐसी कहानियाँ जो बेहद उल्लेखनीय लगीं उनका हल्का सा विवरण संग्रह के परिचय के रूप में समझा जाए।

संग्रह की पहली कहानी "ब्याह" एक ऐसी नारी की कथा है जिसका विवाह एक नपुंसक व्यक्ति से हो जाता है। नायिका दुर्भाग्य के इस अध्याय को अपनी नियति मानकर उस घर में शान्ति और सद्भाव से रहने का प्रयास करती है। घर के सदस्यों को एक लड़की के भविष्य खराब करने पर कोई पश्चाताप नहीं है। यहाँ तक कि उसकी सास अपने बेटे की कमी को सार्वजनिक होने से बचाने के लिए अपने पति यानी नायिका के ससुर को रात उसके कमरे में भेजने से गुरेज नहीं करती।
झूठ और छल के सहारे की गयी बहुत सी निरर्थक और विवादित शादियों की स्मृति इस कहानी के साथ ताजा हो आयी।

"उम्मीद" एक अलग सी कथावस्तु पर आधारित प्रेम-कथा है जहाँ कहानी का नायक एक विवाहित महिला से प्यार करने लगता है। पूरी तरह मानसिक धरातल पर स्थित इस प्यार में न तो कोई शारीरिक आकर्षण है न कोई चाहत। नायिका भी उसके नियमित संपर्क में है और वो भी नायक को पसन्द करती है किंतु अपनी अपनी सरहदों और प्रतिबद्धताओं से दोनों बखूबी वाकिफ़ हैं। न कोई इक़रार न इज़हार। अचानक कुछ यूँ होता है कि इस अव्यक्त प्रेम की पीड़ा से त्रस्त नायक धीरे धीरे बीमार पड़ जाता है। लेखकीय नियंत्रण में जरा सी छूट इसे एक साधारण कहानी बना सकती थी, किन्तु एक बेहद नाज़ुक विषय को बड़ी कुशलता से निभाया है वंदना जी ने।

"एक ज़िन्दगी और तीन चेहरे" एक असंतुष्ट प्रवृति के व्यक्ति की कथा है जो विवाहित होने के बावजूद अपनी प्रकृति के कारण संपर्क में आने वाली महिला मित्रों से सदैव अंतरंग होने का प्रयास करता था। कहानी की आख़िरी पात्र उसे इस मानसिकता से किस तरह मुक्त करती है, यह पढ़ना रोचक है।

"पत्ते झड़ने का मौसम" एक ऐसे ख़ुशमिज़ाज़, सहृदय और सुलझे हुए लेखक की आत्मकथा है जो अपनी कैंसर पीड़ित पत्नी की मृत्यु के बाद खुद को लेखन और यात्राओं में इस कदर व्यस्त कर लेते हैं कि देखने वाले उनकी ज़िंदादिली और जज्बे से रश्क़ करते हैं और कौतुक भी कि क्या इस इंसान को कभी अकेलापन नहीं व्यापता होगा?
एक दिन जब वो नहीं रहते और कथावाचक मित्र के हाथ उनकी डायरी लगती है तब उसे मालूम पड़ता है कि वो अपनी पत्नी और उसे कितना याद करते रहे।

"बुरी औरत हूँ मैं" यह शीर्षक कहानी एक ऐसी महत्वाकांक्षी औरत की ज़िन्दगी को बयान करती है जो अपने शौक पूरा करने के लिए कॉलेज के समय से ही कॉल गर्ल बन जाती है। उसके सौंदर्य पर मोहित कहानी का नायक सब कुछ जानते हुए भी उसे एक बेहतर जीवन देने का वायदा करते हुए उससे विवाह कर लेता है। इस कहानी का भयावह अंत ऐसे लोगों के लिए एक सबक है जो भौतिक सुख सुविधाओं की अनंत भूलभुलैया में खोकर अपने जीवन से खिलवाड़ करते हैं। इस बार भी व्यक्तिगत जीवन में देखी कुछ इसी तरह की घटनाओं की स्मृति के कारण यह कहानी मेरे लिए प्रासंगिक हो उठी।

"कितने नादान थे हम" एक ऐसे पति पत्नी की कथा है जो एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं किंतु भौतिकता की दौड़ में एक दूसरे से बहुत दूर निकल जाते हैं। तलाक आदि कानूनी प्रक्रियाओं का लंबा रास्ता तय करने के बाद अचानक वे खुद को ज़िन्दगी के रेगिस्तान में अकेले खड़ा पाते हैं और फिर उन्हें एक दूसरे की मूल भावनाओं का समुचित एहसास होता है।

"वो बाइस दिन" इस संग्रह की सबसे बेहतरीन और संवेदनशील कहानी है। नायिका के पिता कोमा की अवस्था में हैं। आसन्न मृत्यु की आहट और पीछे अकेले रह जाने को बाध्य परिजनों की उस विवशता के दौर को बेहद सधे शब्दों और अप्रतिम संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है वंदना जी ने।

"स्लीप मोड" इस संग्रह की अंतिम और गुणवत्ता में "वो बाइस दिन" के बाद सबसे अच्छी कहानी है। विस्मरण जैसी खतरनाक बीमारी के शिकार होते जा रहे उम्रदराज परिजन कभी कभी हम सबकी अनजाने में की गई उपेक्षा का शिकार होते हैं। हम उनके बताने पर भी ध्यान नहीं देते और अपनी इन लापरवाहियों पर हमारा ध्यान तब जाता है जब संभावनाओं के सारे दरवाज़े बंद हो चुके रहते हैं।

इस कहानी संग्रह की आरंभिक कहानियों में वंदना जी की भाषा बहुत खटकती है। उनकी कविता का दुष्प्रभाव वाक्य विन्यासों पर बार बार नज़र आता है। शायद ये पुरानी कहानियाँ होंगी जब उनकी भाषा परिमार्जित नहीं थी। किन्तु उत्तरार्द्ध की रचनाएँ पढ़ते हुए स्पष्ट दिखता है कि भाषा और शिल्प पर उनकी पकड़ क्रमशः मजबूत होती गयी है और संभवतः इसीलिए आखिर की कुछ कहानियाँ बेहद असरदार बन पड़ी हैं।

अन्नदाता- मुकेश दुबे

अन्नदाता (उपन्यास)
पृष्ठ- 96, प्रकाशन वर्ष-2015
लेखक- मुकेश दुबे
प्रकाशक- उत्कर्ष प्रकाशन, 142, शाक्य पुरी, कंकरखेड़ा, मेरठ कैंट 250001(उ.प्र.) फ़ोन: 0121-2632902, 9897713037

मुकेश दुबे जी का ये उपन्यास आकार में लघु ज़रूर है किन्तु अपने कथ्य में बड़ा और बेहद महत्वपूर्ण। देश को आजाद हुए 70 वर्ष बीत गए। बाहरी देशों में अपनी चमकदार छवि प्रस्तुत कर हम बड़े गर्व से घोषित करते हैं कि हम महा शक्ति बन गए हैं जबकि वास्तविकता ये है कि इस देश का अन्नदाता यानी किसान आज भी एक निहायत असुरक्षित और कष्टमय जीवन बिताने के लिए बाध्य है। मुकेश जी कई दशकों तक ऐसी नौकरी में रहे जिसने उन्हें देश के भिन्न भिन्न गाँवों में रहने का अवसर दिया और इस दौरान किसानों के बीच रहते हुए उनकी बुनियादी समस्याओं को बेहद नजदीक से देखा और समझा उन्होंने।
उपन्यास की भूमिका में मुकेश जी कहते हैं कि- "मेरे मन में यह विचार बार बार आता रहा कि गाँव के उस जीवन को लिखकर अपने बाद की पीढ़ी को बता सकूँ कि जीवन सुविधाओं की प्रतिपूर्ति भर नहीं है। परिवार का अर्थ बहुत व्यापक होता है। हमें तो ये भी पता भी नहीं होता कि हम घर में जिन चीजों का इस्तेमाल इतनी आसानी से कर रहे होते हैं , उन्हें पैदा करने के लिए किसी गाँव का कोई किसान अपना खून पसीना एक कर रहा होता है।"

संवेदना और सह अनुभूति का यह भाव उपन्यास के हर प्रसंग में पूर्णता के साथ उपस्थित है। व्यक्तिगत जीवन अनुभवों से अर्जित कई घटनाओं और चरित्रों के सहारे बुनी गयी इस कथा में किसानों के पारिवारिक जीवन, कृषि-कार्य से जुड़ी मूलभूत समस्याओं, प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर कदम कदम पर फैले भ्रष्टाचार का जीवंत वर्णन हुआ है। एक बड़े अस्पताल के प्रस्तावित निर्माण से जुड़े उद्योगपति और उसके सहयोग में लगा प्रशासनिक अमला प्रयासरत है कि किसानों की उपजाऊ जमीन किसी भी तरह हासिल कर ली जाय। गाँव के एक बुजुर्ग मास्टर जी और कुछ युवक इन उपजाऊ जमीनों को अधिग्रहण से बचाने के लिए एक ऐसे किसान नेता के संपर्क में आते हैं जो आंदोलन के खर्च के नाम पर उन्हीं से पचास हजार रुपये झटक लेता है। धरने प्रदर्शन की तैयारी होते होते ये किसान नेता अपनी दलाली में सफल हो जाता है और पुलिस तथा प्रशासन के साथ मिलकर ऐसा षड्यंत्र रचता है कि आंदोलन बुरी तरह विफल हो जाता है।
लगातार चौथी प्राकृतिक आपदा झेलने के लिए मजबूर किसानों के सामने कोई रास्ता नहीं है। या तो खेत बेचें या आत्महत्या कर लें। साहूकार से लेकर सहकारी बैंक तक हर जगह कर्ज और व्याज से दबे नायक के पिता अपने परिवार को बचाने के लिए जहर पी लेते हैं। फिर एक बार पुलिस और प्रशासन का खेल शुरू होता है। पीड़ित परिवार पर अलग अलग तरीकों से मानसिक दबाव डालकर इस आत्महत्या को सर्पदंश घोषित करते हुए उनके पूरे कर्ज को समाप्त कर दिया जाता है।
इस किताब की एक विशेषता यह भी है कि घोर निराशा और पराजय के क्षणों में भी कुछ लोग टूटते नहीं। वे गिरते हैं किंतु साहस के साथ उठकर खड़े होते हैं और इन्हीं विषम परिस्थितियों के बीच से अपने लिए एक छोटी सी पगडंडी तलाशने की कोशिश करते हैं।
कृषि विज्ञान से जुड़े होने के कारण लेखक के पास खेती की समस्याओं से जुड़े व्यावहारिक उपाय भी हैं। नियमित फ़सलों की जगह खेतों में उपजाने के लिए फलों और औषधियों के कई विकल्प हैं जिन्हें अपनाकर इन प्राकृतिक आपदाओं से बचते हुए थोड़ा सुरक्षित रहा जा सकता है। रासायनिक जहरीली खादों के प्राकृतिक विकल्प पर भी सार्थक चर्चा हुई है।
कहानी में नायक की छोटी सी प्रेम कहानी भी मूल कथा के समानान्तर चलती रहती है। कई दुखद घटनाओं के बाद इसी प्रेम कहानी की परिणिति के बहाने उपन्यास का समापन भी सुखांत हो जाता है।
हल्का सा फ़िल्मी स्पर्श पाने के बाद भी यह अंत खटकता नहीं क्योंकि यही आशाएँ और उम्मीदें जीवन को निरंतर आगे बढ़ाने में सहायक बनती हैं।
मुकेश दुबे जी को एक अच्छी रचना के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ। एक छोटा सा आग्रह भी है कि इसके अगले संस्करण के समय प्रूफ़ की ग़लती से जो भी भाषायी त्रुटियाँ किताब में रह गईं हैं, उन्हें सुधार लें। किसी भी अच्छी किताब में इस तरह की कमियाँ रह जाना उस रचना के लिए किये गए लेखकीय श्रम के साथ अन्याय है।

विरह विगलित कदंब: पुष्पा भारती

विरह विगलित कदंब पुष्पा भारती साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उ...