मंगलवार, 1 अगस्त 2017

कमलेश्वर की आत्मकथा

जो मैंने जिया
यादों के चिराग
जलती हुई नदी

कमलेश्वर

प्रकाशक --- राजपाल  एंड सन्स

बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न कमलेश्वर ने साहित्य , सिनेमा और दूरदर्शन जैसे अलग अलग क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सृजनात्मक योगदान दिया। नई कहानी आंदोलन के आरंभ और उसके विकास में उनकी अहम भूमिका रही । अपनी कहानियों और उपन्यासों के जरिये एक लंबे समय तक वो हिंदुस्तानी पाठकों के बीच लोकप्रिय और चर्चित रहे।
ऊपर दिए गए तीनों नाम उन्हीं के आत्मपरक संस्मरणों की उन तीन किताबों के हैं जिनमें कमलेश्वर के लेखकीय और रचनात्मक जीवन के कई दशकों का यादगार सफ़र मौज़ूद हैं। वो कहते हैं कि "ये आत्मकथा नही है जिसे मैं सिलसिलेवार लिखूँ। " इसीलिए बहुत से प्रसंग आगे पीछे चलते हैं और कुछ बातें दोहराव की शिकार भी हो जाती हैं। एक प्रसंग के साथ साथ कई क्षेपक प्रसंग भी आ जाते हैं। बावजूद इसके रोचकता और कथ्य की रवानी ऐसी है कि पढ़ना आरम्भ करें तो रुकना कठिन हो जाता है।
थोड़े विलम्ब से शुरू हुआ उनका साहित्य के प्रति लगाव इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश में पहुँचकर तेजी से पनपता है। ये भारतीय साहित्य का ऐसा सुनहरा दौर था जब इलाहाबाद में एक से एक दिग्गज लेखक, संपादक, कवि और विद्वान मौजूद थे। नई कहानी और कल्पना जैसी पत्रिकाएँ थीं जहाँ प्रकाशित होना किसी भी लेखक के लिए गौरव की बात होती थी। उस समय एक तरफ़ कमलेश्वर, अमरकांत, शिव प्रसाद सिंह, शेखर जोशी, भीष्म साहनी जैसे नवोदित कथाकार अपने नए तेवरों और विषयवस्तु की विविधता के साथ साहित्य जगत में प्रवेश कर रहे थे वहीं दुष्यंत कुमार जैसे कवि ग़ज़लकार इस विधा में नए प्रतिमान जोड़ रहे थे। दुष्यंत कमलेश्वर के अभिन्न मित्र रहे और उनसे जुड़े कई ऐसे बेहद रोचक प्रसंग इस किताब में हैं जो हँसने को मजबूर कर देते हैं। प्रेमचंद के प्रतिभावान लेखक सुपुत्र अमृत राय को बड़ी आत्मीयता से याद किया है कमलेश्वर ने और किसी प्रसंग में अमृत जी की धर्मपत्नी के एक पूरे पत्र को अविकल रूप में सम्मिलित कर उनके बारे में और बेहतर ढंग से जानने का अवसर दिया पाठकों को। जहाँ भैरव प्रसाद गुप्त और उपेन्द्रनाथ अश्क जैसे साहित्यिक व्यक्तित्वों के सबल और निर्बल पक्षों पर विस्तृत जानकारी मिलती है वहीं मोहन राकेश की तीन तीन शादियों और उनके संघर्षमय कठिन जीवन के कई अनजाने पहलू भी सामने आते हैं।
नामवर सिंह हर खंड में मौजूद हैं और उनके कूटनीतिक छल प्रपंच को जिस हिम्मत से कमलेश्वर ने बेनक़ाब किया है वैसा आज तक किसी ने नही किया। लोग पीठ पीछे उन्हें चाहे जो कहें पर आमने सामने सब उन्हें झाड़ पर चढ़ाते ही दिखते हैं क्योंकि साहित्य के साथ साथ विश्वविद्यालयों की राजनीति में उनकी जबरदस्त घुसपैठ और उनके कद से हर कोई वाकिफ़ है। मजे की बात ये भी है कि नामवर को आलोचक बनाने में भी कमलेश्वर, मार्कण्डेय और दुष्यंत आदि का ही हाथ था। जिन्न वाला किस्सा इन लोगों के साथ दुबारा घटा।

एक सफल संपादक के रूप में कमलेश्वर का यशस्वी सफ़र नई कहानी से शुरू होकर मुम्बई स्थित टाइम्स समूह की सारिका तक पहुँचता है । उनके लंबे कार्यकाल में इस पत्रिका ने लोकप्रियता के नए कीर्तिमान बनाये। इसी दौरान उनके द्वारा निर्मित दूरदर्शन के बेहद प्रसिद्ध कार्यक्रम " परिक्रमा " के जरिये वो घर घर में लोकप्रिय हो गए। एक विचित्र घटना के दौरान उनकी मुलाकात प्रसिद्ध सिने निर्देशक शक्ति सामंत से हुई और उन्हीं की प्रेरणा से कमलेश्वर फ़िल्म लेखन से भी जुड़े। पहली फ़िल्म अमानुष की सफलता ने उन्हें फ़िल्म जगत में पटकथा और संवाद लेखक के तौर पर प्रतिष्ठित कर दिया। इस दुनिया के बेशुमार किस्से उनकी किताबों में सम्मिलित हैं। फिल्मों में लिखने से उन्हें जहाँ प्रचुर धन,यश और व्यापक पहचान मिली वहीं फ़िल्म जगत की तमाम ऐसी खूबसूरत महिलाओं का सुखद संसर्ग भी मिला जो किसी धनी व्यक्ति का परिवार बिगाड़े बग़ैर उसकी " सेकंड किक" ( ये शब्द पहली बार पढ़ा और जाना :) ) बनकर एक आरामदायक ज़िन्दगी जीने को तैयार रहती थीं। एक मार्मिक प्रसंग में वो बताते हैं कि जब किसी ऐसे ही ख़ास अफेयर का ज़िक्र अपनी पत्नी से गायत्री से करते हैं तो वो बड़े आहत स्वर में पूछती हैं कि-- "दिन रात की इस व्यस्त ज़िन्दगी में , जब चार घंटों की नींद भी तुम्हें नसीब नही होती, इन सबके लिए कैसे समय निकाल लेते हो ?" कमलेश्वर के पास कोई जवाब नही होता।

गुलज़ार के लिए उन्होंने अपने ही दो उपन्यासों पर आधारित "आँधी" और "मौसम" जैसी दो बेहतरीन फ़िल्मों की पटकथा लिखी। फ़िल्में प्रदर्शित हुईं तो क्रेडिट्स में लेखक-निर्देशक के सामने गुलज़ार का नाम था। जब कमलेश्वर ने इस बात पर आपत्ति की तो उन्होंने कहा कि " भाई, फ़िल्म तो सेल्यूलाइड पर लिखी ही जाती है निर्देशक द्वारा"..
" तो कागज़ पर क्या लिखा जाता है" कमलेश्वर ने पूछा।
इस सवाल का कोई तर्कपूर्ण जवाब गुलज़ार साहब के पास नही था। दोनों के रिश्ते और परस्पर सम्मान तो कायम रहे पर इस घटना के बाद कमलेश्वर ने गुलज़ार के लिए कभी कोई फ़िल्म नही लिखी।

एक तरफ़ सारिका का स्वर्णयुग चल रहा था तो दूसरी तरफ़ मराठी का दलित आंदोलन जिसमें कमलेश्वर पूरी निष्ठा से दलित लेखकों के साथ खड़े थे और वो भी ऐसे समय में जब शिवसेना जैसी पार्टी इन लेखकों और इस आंदोलन के विरोध में मारकाट और तोड़फोड़ के स्तर तक मुखर थी।
इसी समय बोहरा सम्प्रदाय के मुक्ति आंदोलन में भी उनका सक्रिय सहयोग जारी था। तत्कालीन प्रशासन में भी उनके बेलगाम और तानाशाह धर्मगुरु का विरोध करने का साहस नही था। इन दोनों ऐतिहासिक घटनाओं से परिचित होना नामुमकिन था यदि ये किताबें हाथ न लगतीं और इसी तरह Jitendra Bhatia (जीतेन्द्र भाटिया) साहब की पहल पर शुरू हुए समांतर आंदोलन के बारे में भी और कहीं जानने का संयोग नही बना था।
आपातकाल और उसके बाद के सामाजिक और राजनीतिक हालात का वर्णन भी विस्तार से हुआ है। इंदिरा गाँधी की सरकार अगले चुनाव में बुरी तरह पराजित हुई और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में नई सरकार बनी। इस सरकार के समय में आपातकाल से भी अधिक रचनात्मक बाधाएँ खड़ी की गईं। इसका विरोध करते हुए जब कमलेश्वर अटल बिहारी वाजपेयी और जे.पी. को पत्र लिखते हैं तो अटल जी उत्तर नही देते और जे.पी. उनके पत्र को लेने से ही इनकार कर देते हैं।

धीरे धीरे टाइम्स समूह का माहौल खराब होता गया। अज्ञेय जी के इस समूह से जुड़ने के बाद धर्मयुग और सारिका दोनों पर लगाम लगाने की कोशिशें होने लगीं। हवा का रुख़ देखकर कमलेश्वर ने सारिका से त्यागपत्र दिया और इंदिरा गाँधी द्वारा प्रस्तावित दूरदर्शन के एडीशनल डायरेक्टर जनरल का पद स्वीकार करके दिल्ली चले गए ।।

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